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केदारनाथ सिंह की कुछ कविताएं

केदारनाथ सिंह का लोक से गहरा रिश्ता है- यह बात न जाने कितनी बार दुहराई जा चुकी है, पर इसे दोहराये बिना कोई रह भी नहीं पाता. गांव उनकी कविता में आबादी की बसाहट की एक इकाई भर नहीं है, बल्कि मनुष्यता, प्रकृति और विराट सृष्टि का लघु रूप है. पूंजीवाद, भूमंडलीकरण व उदारीकरण आज […]

केदारनाथ सिंह का लोक से गहरा रिश्ता है- यह बात न जाने कितनी बार दुहराई जा चुकी है, पर इसे दोहराये बिना कोई रह भी नहीं पाता. गांव उनकी कविता में आबादी की बसाहट की एक इकाई भर नहीं है, बल्कि मनुष्यता, प्रकृति और विराट सृष्टि का लघु रूप है. पूंजीवाद, भूमंडलीकरण व उदारीकरण आज सिर्फ गांवों को ही नहीं, बल्कि पूरी प्रकृति और मनुष्यता को निगल रहे हैं, यह चिंता उनकी कविताओं में बहुत साफ झलकती है. शुक्रवार को उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया. इस मौके पर हम उनकी कुछ कविताएं यहां दे रहे हैं :

सृष्टि पर पहरा

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने

वह सामने खड़ा था

सिवान का प्रहरी

जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-

एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष

जिसके शीर्ष पर हिल रहे

तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था

एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर

महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में

सृष्टि पर पहरा दे रहे थे

तीन-चार पत्ते

विद्रोह

आज घर में घुसा

तो वहां अजब दृश्य था

सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-

यह रहा मेरा इस्तीफ़ा

मैं अपने कपास के भीतर

वापस जाना चाहता हूं

उधर कुर्सी और मेज़ का

एक संयुक्त मोर्चा था

दोनों तड़पकर बोले-

जी- अब बहुत हो चुका

आपको सहते-सहते

हमें बेतरह याद आ रहे हैं

हमारे पेड़

और उनके भीतर का वह

ज़िंदा द्रव

जिसकी हत्या कर दी है

आपने

उधर आलमारी में बंद

किताबें चिल्ला रही थीं

खोल दो-हमें खोल दो

हम जाना चाहती हैं अपने

बांस के जंगल

और मिलना चाहती हैं

अपने बिच्छुओं के डंक

और सांपों के चुंबन से

पर सबसे अधिक नाराज़ थी

वह शॉल

जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था

बोली- साहब!

आप तो बड़े साहब निकले

मेरा दुम्बा भेड़ा मुङो कब से

पुकार रहा है

और आप हैं कि अपनी देह

की क़ैद में

लपेटे हुए हैं मुङो

उधर टी.वी. और फोन का

बुरा हाल था

ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे

वे

पर उनकी भाषा

मेरी समझ से परे थी

-कि तभी

नल से टपकता पानी तड़पा-

अब तो हद हो गई साहब!

अगर सुन सकें तो सुन

लीजिए

इन बूंदों की आवाज़-

कि अब हम

यानी आपके सारे के सारे

क़ैदी

आदमी की जेल से

मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं-

मेरा दरवाज़ा कड़का

जब मैं बाहर निकल रहा था.

विज्ञान और नींद

जब ट्रेन चढ़ता हूं

तो विज्ञान को धन्यवाद देता हूं

वैज्ञानिक को भी

जब उतरता हूं वायुयान से

तो ढेरों धन्यवाद देता हूं विज्ञान को

और थोड़ा-सा ईश्वर को भी

पर जब बिस्तर पर जाता हूं

और रोशनी में नहीं आती नींद

तो बत्ती बुझाता हूं

और सो जाता हूं

विज्ञान के अंधेरे में

अच्छी नींद आती है

एक लोकगीत की अनु- कृति

(जो मैंने मंगल मांझी से सुना था)

आम की सोर पर

मत करना वार

नहीं तो महुआ रात भर

रोयेगा जंगल में

कच्चा बांस कभी काटना मत

नहीं तो सारी बांसुरियां

हो जायेंगी बेसुरी

कल जो मिला था राह में

हैरान-परेशान

उसकी पूछती हुई आंखें

भूलना मत

नहीं तो सांझ का तारा

भटक जायेगा रास्ता

किसी को प्यार करना

तो चाहे चले जाना सात समुंदर पार

पर भूलना मत

कि तुम्हारी देह ने एक देह का

नमक खाया है.

बाघ

एक आदिवासी लड़की

महुवा बीनते बीनते

एक बाघ देखती है

जैसे जंगल में

एक बाघ दिखता है.

आदिवासी लड़की को बाघ

उसी तरह देखता है

जैसे जंगल में एक आदिवासी लड़की दिख जाती है

जंगल के पक्षी दिख जाते हैं

तितली दिख जाती है-

और बाघ पहले की तरह

सूखी पत्तियों पर

जंभाई लेकर पसर जाता है.

एक अकेली आदिवासी लड़की को

घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता

बाघ शेर से डर नहीं लगता

पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से

डर लगता है.

बाजार में आदिवासी

भरे बाजार में

वह तीर की तरह आया

और सारी चीजों पर

एक तेज हिकारत की नजर फेंकता हुआ

बिक्री और खरीद के बीच के

पतले सुराख से

गेहुंअन की तरह अदृश्य हो गया

एक सुच्चा

खरा

ठनकता हुआ जिस्म

कहते हैं वह ठनक अबूझमाड़ में

रात बिरात

अक्सर सुनाई पड़ती है

मिला कोई गायक

तो एक दिन पूछूंगा

संगीत की भाषा में

क्या कहते हैं इस ठनक को?

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