क्या आतंक रोक सकेगा पाक?

।। आकार पटेल ।। वरिष्ठ पत्रकार पाकिस्तानी सेना द्वारा इस सप्ताह उत्तरी वजीरिस्तान में मौजूद आतंकवादी संगठनों और उनके ठिकानों के खिलाफ शुरू की गई कार्रवाई आनेवाले महीनों में, थोड़े समय के लिए ही सही, हिंसा को दुर्भाग्यपूर्ण रूप से बढ़ा सकती है. इस क्षेत्र में नियंत्रण स्थापित कर पाना बहुत कठिन है, क्योंकि इलाके […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 22, 2014 5:39 AM

।। आकार पटेल ।।

वरिष्ठ पत्रकार

पाकिस्तानी सेना द्वारा इस सप्ताह उत्तरी वजीरिस्तान में मौजूद आतंकवादी संगठनों और उनके ठिकानों के खिलाफ शुरू की गई कार्रवाई आनेवाले महीनों में, थोड़े समय के लिए ही सही, हिंसा को दुर्भाग्यपूर्ण रूप से बढ़ा सकती है. इस क्षेत्र में नियंत्रण स्थापित कर पाना बहुत कठिन है, क्योंकि इलाके में अल-कायदा के सबसे मजबूत लड़ाकों का जमावड़ा है.

क्या भारत में आतंकवादी वारदातों में हुई कमी का कारण पाकिस्तान में ऐसी घटनाओं की संख्या में आयी बढ़ोतरी है? पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आइएसआइ) का ऐसा ही मानना है. पिछले सप्ताह मैं पाकिस्तान में था. वहां आइएसआइ के एक सेवानिवृत्त जनरल ने मुङो बताया कि विगत एक दशक में पाकिस्तान में हिंसक घटनाओं में आयी तेजी का कारण सेना द्वारा भारत के खिलाफ सक्रिय आतंकवादी संगठनों को समाप्त करने का निर्णय हो सकता है. 2003 तक पाकिस्तान में हिंसक वारदातें कम होती थीं. उस वर्ष सिर्फ 189 पाकिस्तानी मारे गये थे, जिनमें 140 नागरिक थे.

इससे एक वर्ष पूर्व यानी 2002 के शुरू में राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफने लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसके बाद भारत में आतंकवादी घटनाओं में कमी आने लगी थी. मैंने इस बात का उल्लेख पिछले सप्ताह किया था. पाकिस्तान में ठीक इसका उलटा हुआ, जिस ओर आइएसआइ के पूर्व जनरल संकेत कर रहे थे.

2004 में मृतकों की संख्या 863 और 2005 में 648 थी. उसके बाद, राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल के आखिरी वर्षो में एक दौर शुरू हुआ, जब हिंसा अनियंत्रित होती चली गयी. वर्ष 2006 में 1,471, वर्ष 2007 में 3,598, वर्ष 2008 में 6,715 और वर्ष 2009 में 11,704 लोग मारे गये.

2009 की संख्या हिंसा का चरम बिंदु थी. उसके बाद इसमें गिरावट आयी, लेकिन कोई बहुत कमी नहीं हुई. आतंकवाद से होनेवाली मौतों की संख्या वर्ष 2010 में 7,435, वर्ष 2011 में 6,303, वर्ष 2012 में 6,211 और वर्ष 2013 में 5,379 थी. इस वर्ष अभी तक ऐसी घटनाओं में मरनेवालों की संख्या 2,137 है, जो कि 2011 के बाद चले आ रहे रुझानों के मुताबिक है.

मेरे पास ये सब आंकड़े थे और मैंने जनरल को बताया कि 2009 के बाद हिंसा में कमी आयी है. भले ही इस कमी की गति धीमी हो, लेकिन पाकिस्तान के आंकड़े बताते हैं कि भारत की ही तरह वहां भी हिंसा कम होती जा रही है. जनरल ने कहा कि नहीं, 2009 का वर्ष एक अपवाद था. उस वर्ष पाकिस्तानी सेना ने दक्षिणी वजीरिस्तान के इलाके को आतंकियों से मुक्त कर उसे पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने का अभियान चलाया था. आइएसआइ के इस पूर्व जनरल ने बताया कि इसी कारण मरनेवालों की संख्या बढ़ गयी थी.

हालांकि, आंकड़ों के अनुसार अपेक्षाकृत कम लोग प्रत्यक्ष रूप से सैनिक अभियान में मारे गये थे, लेकिन यह संभव है कि इस कार्रवाई के विरोध में आतंकवादियों ने पाकिस्तान के शहरों में अधिक हमले किये, क्योंकि आतंकी सेना को मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे. अगर 2008 की संख्या से तुलना करें, तो मृतकों की संख्या में अगले साल यानी 2010 में हुई कमी को स्थिति में बेहतरी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

पाकिस्तानी सेना द्वारा इस सप्ताह उत्तरी वजीरिस्तान में मौजूद आतंकवादी संगठनों और उनके ठिकानों के खिलाफ शुरू की गयी कार्रवाई आनेवाले महीनों में, थोड़े समय के लिए ही सही, हिंसा को दुर्भाग्यपूर्ण रूप से बढ़ा सकती है. इस क्षेत्र में नियंत्रण स्थापित कर पाना बहुत कठिन है, क्योंकि इलाके में अल-कायदा के सबसे मजबूत लड़ाकों का जमावड़ा है. इन लड़ाकों में बहुत बड़ी संख्या मध्य एशिया से आये आतंकवादियों की है, जिनके सामने वजीरिस्तान छोड़ कर कहीं और जाने का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है. ऐसी स्थिति में ये लड़ाके अपनी पूरी ताकत के साथ पाकिस्तानी सेना का सामना करेंगे. यदि 2009 की स्थितियां दोबारा उत्पन्न होती हैं, तो पाकिस्तान के शहरी इलाकों में भी हमलों की आशंका बढ़ जायेगी.

आइएसआइ के इस पूर्व जनरल ने यह भी कहा कि उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान के मौजूदा हालात को भारत अपने लिए संतोषजनक मानता है. भारतीय मनोवृत्ति के बारे में बात करते हुए उन्होंने ‘उन्हें अपनी करनी का फल भोगने दो’ और ‘तुम लोगों ने समस्या पैदा की, अब उसका परिणाम भी भुगतो’ जैसे मुहावरे प्रयोग किये. हालांकि, उनका यह स्पष्ट मत था कि आतंकवादियों के खिलाफ अभियान से पीछे हटने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है, क्योंकि पाकिस्तानी सेना उन्हें अपने दुश्मन के रूप में देखती है.

दरअसल, जिन पाकिस्तानी शासन के पूर्व प्रतिनिधियों और राजनयिकों से लेकर राजनेताओं व सैन्य अधिकारियों से मेरी बातचीत हुई, वे सभी यह मानने लगे हैं कि ये आतंकवादी ही असली दुश्मन हैं. इनमें से अनेक लोग ऐसे थे, जिन्हें हम पहले कट्टर और युद्धोन्मादी मानते थे.

पाकिस्तान में लोग अब पहले की तरह आतंकवादी गिरोह तालिबान को भले और बुरे तालिबान के खांचे में बांट कर नहीं देख रहे हैं. पाकिस्तान के जिन लोगों से मेरी बातचीत हुई और जिनके विचारों को मैंने सुना, उन सभी लोगों ने यह कहा कि लश्कर-ए-तैय्यबा, विशेष रूप से हाफिज सईद, को लेकर पाकिस्तानी शासन के सामने कुछ सीमाएं थीं, जिनके कारण उनके खिलाफ कोई ठोस या कठोर कार्रवाई करने में हिचक देखने को मिली थी, लेकिन इस परिस्थिति को उस संगठन को प्रोत्साहित करने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

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