उम्मीद की किरण नयी हिंदी

सन्नी कुमार टिप्पणीकार sunnyand65@gmail.com मानव जाति ने हमेशा से स्वयं को किसी न किसी तरह अभिव्यक्त किया है. समय के साथ अभिव्यक्ति के साधन और उसके स्वरूप में भी परिवर्तन आया, इसलिए हर युग की कला अपने स्वरूप, उद्देश्य, रचना इत्यादि में स्वाभाविक भिन्नता रखती है. वर्तमान समय में ‘नयी हिंदी’ को भी इसी परिप्रेक्ष्य […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 8, 2019 6:53 AM
सन्नी कुमार
टिप्पणीकार
sunnyand65@gmail.com
मानव जाति ने हमेशा से स्वयं को किसी न किसी तरह अभिव्यक्त किया है. समय के साथ अभिव्यक्ति के साधन और उसके स्वरूप में भी परिवर्तन आया, इसलिए हर युग की कला अपने स्वरूप, उद्देश्य, रचना इत्यादि में स्वाभाविक भिन्नता रखती है. वर्तमान समय में ‘नयी हिंदी’ को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए.
जिसे हम नयी वाली हिंदी कहते हैं, उसने न केवल नये युवा लेखकों की पौध तैयार की है, बल्कि एकदम नया और विस्तृत पाठकवर्ग भी तैयार किया है.
यह हिंदी के लिए गर्व की बात है. आज वृहद रूप से स्कूल-कॉलेज के छात्रों तथा युवा पेशेवर पाठकों का इसी नयी हिंदी के माध्यम से पहली बार साहित्य पठन-पाठन के क्षेत्र में प्रवेश हुआ है, जो निश्चित ही समय के साथ अन्य विधाओं में भी रुचि लेगा. जो लोग भाषा-व्याकरण को लेकर पवित्रता की हद तक कट्टर हैं, उन्हें मानना पड़ेगा कि उनका यह आग्रह भाषा विस्तार में बाधक है. भाषाई नियमों का पालन किया जाना चाहिए, किंतु ये नियम साहित्य सृजन के साधन हो सकते हैं, साध्य नहीं. नये शब्दों का प्रयोग या फिर जिसे उपहासपूर्ण ढंग से ‘मिक्स्ड भाषा’ कहा जाता है, वह दरअसल इस समय के एक बड़े पाठक समूह की भाषा है, जिससे जुड़ने के लिए उनकी भाषा का ही प्रयोग करना होगा.
नयी हिंदी इस अर्थ में भी उत्साह पैदा करती है कि इसमें पर्याप्त विविधता है और यह समाज के अलग-अलग क्षेत्रों की कहानी कह रहा है. ‘बनारस टॉकीज’ जहां विश्वविद्यालय कैंपस के छात्रों की कहानी कहता है, तो वहीं ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ नारी विमर्श में एक सशक्त हस्तक्षेप है. इसी प्रकार ‘रेखना मेरी जान’ उपन्यास के मूल में वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण परिवर्तन है. ऐसे अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं.
नयी हिंदी पर लगनेवाला आक्षेप कि यह केवल लोकप्रियता को आधार मानता है और गंभीर लेखन से दूर है, इसके संबंध में इस दिलचस्प तथ्य का उल्लेख जरूरी होगा कि ‘डार्क हॉर्स’ जहां सबसे अधिक बिकनेवाली शीर्ष किताबों में रही, तो इसे ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ के रूप में गंभीरता का प्रमाणपत्र भी मिला.
हमें इस सोच से आजाद होना पड़ेगा कि जो लोकप्रिय है, वह गंभीर नहीं है. वहीं लेखकों की सोशल मीडिया पर उपस्थिति एक सुखद संकेत है. इससे वर्चुअल माध्यम बौद्धिक रूप से सशक्त भी होता है और इससे एक वैचारिक पारदर्शिता भी निर्मित होती है. साथ ही प्रकाशकों पर भी एक दबाव होता है कि वे लेखक-पाठक को भी किसी किताब की बिक्री का ठीक-ठीक लेखा-जोखा बतायें. यह एक क्रांतिकारी बदलाव है.
हिंदी को इस थकाऊ विवाद से बचते हुए ‘लेखक- प्रकाशक कॉन्ट्रैक्ट’, ‘ई- बुक पब्लिकेशन’ इत्यादि जैसे विषयों पर ध्यान लगाना चाहिए.
इससे न केवल भाषा का प्रसार होगा, बल्कि लेखकों की आय भी बढ़ेगी. भूखे पेट हिंदी की व्यथा कहने से बेहतर है, भरे पेट से हिंदी के विस्तार की बात सोची जाये. नयी वाली हिंदी इस संबंध में बड़ी उम्मीद जगाती है.

Next Article

Exit mobile version