पंकज कुमार पाठक
प्रभात खबर, रांची
पुलिसिया कार्यप्रणाली पर मेरी एक फेसबुक पोस्ट पढ़ कर एक मित्र ने मुङो फोन किया. लंबी बातचीत हुई. बातों ही बातों में उन्होंने एक किस्सा सुनाया. एक बार किसी ने एक नये-नये नियुक्त हुए पुलिसकर्मी से पूछा कि आप पुलिस में क्यों आये? उसने जवाब दिया- ‘‘मेरे पिताजी का सपना था कि मैं पुलिसवाला बनूं, ताकि वह मुफ्त की सब्जी, फल और मिठाई खाने का सुख प्राप्त कर सकें.
फोकट के टिकट पर सिनेमा देखने का आनंद उठा सकें. अपनी गाड़ी पर पुलिस लिखवा कर इधर-उधर बेरोक -टोक घूम सकें.’’ उस व्यक्ति ने फिर पूछा- ‘‘ऐसा कहते आपको शर्म नहीं आती?’’ पुलिसकर्मी ने कहा- ‘‘लाज-शर्म होती तो पुलिसवाला बनता.’’ किस्सा खत्म होते ही हमारी बातचीत हंसी में बदल गयी. हालांकि इस हंसी में ही एक प्रश्न भी छिपा था कि पुलिस पर बननेवाले ऐसे किस्से हमें क्या बताना चाहते हैं? आखिर क्यों कोई संवेदनशील इनसान पुलिसवाला नहीं बनना चाहता? दरअसल ये किस्से या चुटकुले आज की तारीख में पुलिसिया कार्यप्रणाली के जीवंत प्रमाण हैं. भारत में पुलिस के कारनामे सुनाना, लोगों को हंसाने का एक माध्यम है.
बचपन के किस्से-कहानियों या किताबों में जिस निडर, बहादुर, ईमानदार और कर्मठ पुलिसवाले को सुना-पढ़ा, वह पुलिसवाला आज भी उन्हीं किताबों में बंद है. फिल्मों के सच्चे देशभक्त पुलिसवाले, मायानगरी से बाहर निकल कर कभी आये ही नहीं. खाकी वर्दी शुरू से ही झूठे, बेईमान और दलालों की संपत्ति बन गयी. इसलिए आज पुलिस का जिक्र या तो हंसने के लिए होता है या फिर हंसाने के लिए. पुलिस के क्रूरता के कारनामे शर्म से आंखें झुकाने पर मजबूर कर देंगे. शायद ही किसी बच्चे के मां-बाप ने आज सपना देखा होगा कि उनका बच्च बड़ा होकर पुलिसवाला बनेगा. पुलिस का अमानवीय, अमर्यादित और असभ्य आचरण, अपराधियों से रिश्ते, नेताओं की गुलामी और कामचोरी के कारण कोई एक सामान्य व्यक्ति पुलिस के पास जाने से डरता है.
हालात यह है कि आज देश के पुलिस बलों को मानवीय और सभ्य रहने की ट्रेनिंग देने की जरूरत पड़ती है. भ्रष्टाचार के, झूठ बोलने के, सबूत मिटाने के, दलाली करने के, हफ्ता मांगने के और न जाने कितने तरह के गंभीर आरोप पुलिस पर लगते हैं. यह सिर्फ हमारे-आपके क्षेत्र के पुलिस का चरित्र-चित्रण नहीं है, देश में कहीं भी चले जाइए, भले ही वहां का मौसम अलग हो, भाषा अलग हो, लेकिन ये पुलिसिया आचरण एक जैसा ही मिलेगा. ऐसी गजब की ‘एकरूपता’ शायद ही किसी बिरादरी में आपको देखने को मिले. पुलिस को पुलिस यानी पुरुषार्थी, लिप्सारहित और सहयोगी (मेरे शहर के एक थाने के मुख्य द्वार पर लगे बोर्ड में पुलिस का यही अर्थ लिखा रहता था, जब मैं स्कूल में पढ़ता था) बनने में और कितना समय लगेगा? खाकी वर्दी का यह नशा आखिर कब उतरेगा?