सियासी पॉपुलिस्ट दौर
अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह हमारे देश में भी लोक-लुभावन नीतियों की पुरानी परंपरा रही है. अपने जनाधार को बनाये रखने और उसका दायरा बढ़ाने के लिए सरकारें ऐसा करती हैं. बेहद सस्ती दरों पर भोजन और कपड़ा देने के अनेकों उदाहरण हैं. इसी कड़ी में साइकिल या लैपटॉप बांटना भी शामिल है. बीते कुछ […]
अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह हमारे देश में भी लोक-लुभावन नीतियों की पुरानी परंपरा रही है. अपने जनाधार को बनाये रखने और उसका दायरा बढ़ाने के लिए सरकारें ऐसा करती हैं. बेहद सस्ती दरों पर भोजन और कपड़ा देने के अनेकों उदाहरण हैं. इसी कड़ी में साइकिल या लैपटॉप बांटना भी शामिल है. बीते कुछ समय से विभिन्न राज्यों में किसानों की कर्ज माफी का सिलसिला भी चल पड़ा है. खबरों की मानें, तो केंद्र सरकार जल्दी ही खेतिहर लोगों की आमदनी बढ़ाने के उपायों की घोषणा कर सकती है. हाल के दिनों में बेरोजगारी भत्ता, आरक्षण तथा सस्ती दरों पर कारोबारी कर्ज मुहैया कराने जैसे मुद्दे भी चर्चा में हैं.
ये नीतियां वित्तीय और नीतिगत स्तर पर कितनी उचित या व्यावहारिक हैं, यह एक अलग बहस है. इन्हें सिर्फ सियासी फायदे के इरादे से उठाये जा रहे कदम कहना ठीक नहीं है. अहम सवाल यह है कि आखिर विभिन्न दलों और गठबंधनों को ऐसी पहलें क्यों करनी पड़ रही हैं?
लोक-लुभावन फैसले जनता को फौरी राहत देते हैं, क्योंकि हमारी आबादी के बड़े हिस्से की आमदनी बेहद कम है तथा मौजूदा अर्थव्यवस्था में उसे अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. अगर हम आंकड़ों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि आमदनी के मामले में विषमता तेजी से बढ़ रही है.
एक तरफ एक फीसदी धनकुबेरों की संपत्ति बेतहाशा बढ़ रही है, पर बाकी लोगों की आय में न के बराबर बढ़ोतरी है. कृषि-संकट के तात्कालिक समाधान की कोई सूरत नहीं नजर नहीं आ रही है. रोजगार के मोर्चे पर लगातार निराशजनक रुझान आ रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकारों ने नीतियों और कार्यक्रमों से हालात बेहतर करने की कोशिशें की हैं, पर उनके सकारात्मक परिणाम सामने आने में अभी समय लग सकता है.
ऐसे में लोगों में आर्थिक विषमता को कम करने के आग्रह भी बढ़ रहे हैं. विश्व मूल्य सर्वेक्षण के मुताबिक, 2010-14 के बीच 48 फीसदी भारतीयों का मानना था कि आमदनी की खाई को पाटने के प्रयास होने चाहिए. यह आंकड़ा तब पूरे दुनिया में सबसे ज्यादा था. साल 1989-93 की अवधि में सिर्फ 13 फीसदी भारतीय ही ऐसा मानते थे.
इसका सीधा मतलब है कि तब विषमता को लेकर चिंता कम थी और अब यह बहुत बढ़ गयी है. रोजमर्रा की मुश्किलों से जूझती देश की बहुत बड़ी आबादी की नजर से धन का कुछ लोगों के पास केंद्रित होने की प्रक्रिया छिपी हुई नहीं है. चूंकि, लोकतंत्र में सरकारों की डोर मतदाताओं के हाथ में होती है, तो उन पर लोगों के आग्रह का दबाव है, जिसकी अनदेखी करना आसान नहीं है.
लेकिन, यह भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या पॉपुलिस्ट कवायदें आमदनी की खाई को पाटने में कामयाब हो रही हैं या इनसे मिलनेवाली राहत स्थायी तौर पर लोगों के लिए मददगार हो रही हैं. आज इस बात की जरूरत है कि गरीबी हटाने और आमदनी बढ़ाने के ठोस उपायों पर समुचित चर्चा हो, ताकि दीर्घकालिक समाधान की राह निकल सके.