आरक्षण से अच्छे दिन का प्रयास
राजनीति कब करवट बदल कर वोटनीति में तब्दील हो जाती है, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण चुनावी साल में देखने को मिलता है. लोकलुभावन वादे सत्तालोलुपता में हवा-हवाई हो जाते हैं. कुंभकर्णी नींद से जागे स्वयंभुओं को चुनावी कसरत के समय ही यह याद आते हैं. आरक्षण की आड़ में सत्ता हथियाने की जुगत में सबने अपनी […]
राजनीति कब करवट बदल कर वोटनीति में तब्दील हो जाती है, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण चुनावी साल में देखने को मिलता है. लोकलुभावन वादे सत्तालोलुपता में हवा-हवाई हो जाते हैं. कुंभकर्णी नींद से जागे स्वयंभुओं को चुनावी कसरत के समय ही यह याद आते हैं. आरक्षण की आड़ में सत्ता हथियाने की जुगत में सबने अपनी सहमति से मतदाताओं को खुश करने का प्रयत्न करना शुरू दिया है. पिछले दशक से देश की चुनावी पटकथा जिन मुद्दों पर सिमटती जा रही है, उनमें आरक्षण सबसे ऊपर है.
सरकार के समाधान का यह रवैया सरकार से ज्यादा सवर्णों को कितना लाभ पहुंचा पायेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है. निस्संदेह चुनावी लाभ के परिप्रेक्ष्य में लिया गया यह निर्णय आगामी चुनाव को दिशा प्रदान करने वाला होगा. तीन बड़े राज्यों की हार के बाद लिया गया यह निर्णय इस बात की ओर भी संकेत करता है कि पार्टियां अब बिना आत्ममंथन के जल्द फैसला लेने में यकीन करने लगी हैं.
सौरभ पाठक, बुंडू