उपज के घटते दाम

अनेक चर्चाओं और तात्कालिक उपायों के बावजूद खेती-किसानी की मुश्किलें थमती नजर नहीं आ रही हैं. वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी दिसंबर के थोक मूल्य सूचकांक इंगित करते हैं कि प्राथमिक खाद्य उत्पादों के दाम जुलाई से लगातार गिर रहे हैं. ये आंकड़े इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि किसान अपनी उपज थोक बाजार में ही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 16, 2019 7:27 AM

अनेक चर्चाओं और तात्कालिक उपायों के बावजूद खेती-किसानी की मुश्किलें थमती नजर नहीं आ रही हैं. वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी दिसंबर के थोक मूल्य सूचकांक इंगित करते हैं कि प्राथमिक खाद्य उत्पादों के दाम जुलाई से लगातार गिर रहे हैं. ये आंकड़े इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि किसान अपनी उपज थोक बाजार में ही बेचते हैं.

यह गिरावट सूचकांक के अन्य हिस्सों में नहीं है. अक्तूबर और दिसंबर के बीच उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में भी खाद्य पदार्थों की कीमतें कम हुई हैं. इसका सीधा मतलब यह है कि किसान अपनी पैदावार कम दाम पर बेच रहे हैं, जबकि उन्हें अपने उपभोग की चीजें महंगी दरों पर खरीदनी पड़ रही हैं. उपज की गिरती कीमत तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आय में कमी का लोगों की क्रय शक्ति पर नकारात्मक असर पड़ा है.

मांग और उपभोग घटने से अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होती है, क्योंकि औद्योगिक और उपभोक्ता वस्तुओं का बड़ा खरीदार वर्ग ग्रामीण भारत में बसर करता है. ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी जैसे उपायों से भले ही फौरी राहत मिल जाये, परंतु इनसे किसानों का कल्याण संभव नहीं है.

फ्रांस के प्रधानमंत्री रहे पियरे मेंडेस-फ्रांस ने कहा था कि शासन करने का अर्थ होता है विकल्प का चयन करना. दुर्भाग्य की बात है कि कई वर्षों के कृषि-संकट के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारें इस संबंध में ठोस नीतिगत पहल नहीं कर पायी हैं. राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और चुनावी समीकरणों में उलझी पार्टियों और सरकारों ने सकारात्मक आर्थिक सुधारों से कृषि क्षेत्र को अलग ही रखा है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा या कर्ज माफी के फैसलों के नतीजों की कभी ठीक से समीक्षा नहीं की जाती है. किसानों तक इनके फायदे तुरंत पहुंचाने तथा बकाया भुगतान की समुचित सुविधा की खामियों को दूर करने के प्रयास भी अनमने ढंग से होते रहे हैं. एक तो सरकारी खरीद कम होती है और दूसरे, खरीद का भुगतान करने में देरी की जाती है.

इसी तरह सहकारी संस्थाओं और मिलों से भी पैसा निकालने में किसान परेशान रहते हैं. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि कृषि उपज के दाम में मौजूदा कमी 2000-01 के करीब दो दशक बाद ऐसी गंभीर स्थिति में पहुंची है तथा थोक सूचकांक में अनाज की कीमतें किसी वित्त वर्ष में लगातार दो तिमाही गिरने की घटना पिछली बार 1990 में हुई थी.

उपज की सही कीमत न मिलने की निराशा कभी किसानों को आत्महत्या करने या कभी फसलों को सड़क पर बिखेर देने के रूप में सामने आती है. देश के अनेक हिस्सों में बीते कुछ समय से किसान लगातार प्रदर्शन कर सरकारों से समस्याओं की सुनवाई की गुहार लगा रहे हैं.

किसानों ने अपनी मेहनत से पैदावार बढ़ाकर खाद्यान्न में देश को आत्मनिर्भर बनाया है. अब इनकी मुश्किलें बर्दाश्त से बाहर जा चुकी हैं और इनसे निजात पाने के लिए गंभीर पहलकदमी की दरकार है.

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