सपा-बसपा गठबंधन के मायने

नीरजा चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार neerja_chowdhury@yahoo.com भारतीय राजनीति में सपा-बसपा का गठबंधन ऐतिहासिक कहा जा सकता है. दोनों पार्टियों की विचारधाराएं अलग-अलग हैं और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीति करने के तरीके भी अलग-अलग हैं. इन दोनों का गठबंधन निश्चित रूप से भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है, बशर्ते इन दोनों के बीच खींचतान कम-से-कम हो. साल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 17, 2019 12:06 AM
नीरजा चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार
neerja_chowdhury@yahoo.com
भारतीय राजनीति में सपा-बसपा का गठबंधन ऐतिहासिक कहा जा सकता है. दोनों पार्टियों की विचारधाराएं अलग-अलग हैं और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीति करने के तरीके भी अलग-अलग हैं. इन दोनों का गठबंधन निश्चित रूप से भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है, बशर्ते इन दोनों के बीच खींचतान कम-से-कम हो.
साल 2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट शेयर जहां 42.6 प्रतिशत था, तो वहीं सपा-बसपा का मिलाकर भी 42 प्रतिशत था. यानी अगर इस समीकरण को देखें, तो सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा के बीच बराबरी की लड़ाई हो सकती है, जिससे उत्तर प्रदेश में आधे सीटों का सीधा नुकसान भाजपा को हो सकता है.
यहां एक और महत्वपूर्ण बात है. अगर सपा-बसपा के साथ राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) भी आती है (जिसकी संभावना है), तब तो यह गठबंधन भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकता है.
अब सवाल यह है कि इस गठबंधन को लेकर मतदाताओं के मन में क्या है? यह देखनेवाली बात होगी कि किस पार्टी का वोट बैंक किसी और तरफ ट्रांसफर होता है या नहीं. बसपा का वोट बैंक कहीं और जाना नहीं है.
लेकिन, सपा के मतदाता छिटक सकते हैं, किस तरफ छिटकेंगे, यह देखना होगा. क्योंकि, साल 2014 में यादवों का कुछ हिस्सा भाजपा की तरफ चला गया था. ऐसे में अभी कुछ ठोस कह पाना मुश्किल है, लेकिन इतना जरूर है कि इस गठबंधन से उत्तर प्रदेश में भाजपा को नुकसान होगा, जिसमें एक कारक खुद वहां के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ होंगे.
दूसरी बात यह है कि इस समीकरण में नरेंद्र मोदी की छवि और उनका औरा कितना सेंध लगा पाता है, इसकी गहराई में जाने की जरूरत है. योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में जो जमीन खाेयी है, उसकी भरपाई मोदी कितनी कर पाते हैं, यह तो वक्त बतायेगा. बीते डेढ़-दो साल में ही योगी से काफी लोग नाराज हैं और कई तबके में नाराजगी है.
नरेंद्र मोदी की अब भी गुडविल है, लेकिन इसमें भी थोड़ी कमी आयी है. इसलिए यह कहना भी मुश्किल है कि यह गुडविल कितना असर करेगा. हालांकि, अब भी लोग हैं, जो चाहते हैं कि मोदी जी को एक मौका और दिया जाना चाहिए, लेकिन वहीं दलित, गरीब, बेरोजगार युवा, छोटे व्यापारी, किसान आदि लोग नहीं चाहते कि मोदी फिर प्रधानमंत्री बनें.
हालांकि, बहुत कुछ चुनाव की घोषणा और इस सरकार के आखिरी बजट पर भी निर्भर करेगा कि मोदी अपनी छवि कितना बरकरार रख पायेंगे. लेकिन, इतना तो तय है कि इन पार्टियों का एक साथ आना भाजपा के लिए एक बुरी खबर है.
जब सपा और बसपा अलग-अलग थीं, तब साल 2014 के आम चुनाव में सपा पांच सीट और बसपा शून्य पर आ गयी थी. लेकिन, इनके इकट्ठा होने में कहानी बदल जायेगी, क्योंकि इस बार योगी सरकार से लोगों की नाराजगी से एंटी-इन्कम्बैंसी भी होगी.
जहां तक यह प्रश्न है कि इन पार्टियों ने बिना कांग्रेस के इतना बड़ा कदम उठाया है, तो इसके पीछे यह समीकरण दिख रहा है कि बीते समय में उत्तर प्रदेश के उप चुनावों में जिस तरह से कांग्रेस ने भाजपा को शिकस्त दी थी, उससे लगता है कि साल 2014 में कांग्रेस से छिटके मतदाता शायद वापसी करेंगे. हालांकि, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कोई खास वजूद नहीं है इन दिनों.
इसलिए मुझे लगता है कि सपा-बसपा गठबंधन के साथ अगर कांग्रेस भी होती, तो बेहतर समीकरण बनता. वजह- एक तो यह कि कांग्रेस एक तरह से राष्ट्रीय विकल्प तो है ही, और अब तो तीन बड़े राज्य भी उसने भाजपा से ले लिये हैं.
यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता उस पार्टी के प्रत्याशी को वोट देना पसंद करेगा, जो भाजपा के प्रत्याशी काे हराये. ऐसे मेंे यह जरूर लगता है कि इस बार मुस्लिम मतदाता भी कई सीटों का रुख बदलेंगे, क्योंकि इस वक्त वहां वे असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.
मुसलमान ज्यादातर कांग्रेस को वोट देते रहे हैं, इसलिए अगर सपा-बसपा के साथ कांग्रेस भी होती, तब यह गठबंधन भाजपा को 55-60 सीटों का सीधा नुकसान पहुंचा सकता है. सपा-बसपा कह रही थीं कि कांग्रेस साथ आने के लिए बहुत ज्यादा सीटें मांग रही थी.
जाहिर है, इस मसले का समाधान हो सकता था. और मैं तो मानती हूं कि अभी भी कहानी खत्म नहीं हुई है, आगे आनेवाले समय में गठबंधन का स्वरूप कुछ बदल भी सकता है. सीटों का ऐलान करने के बाद भी कुछ रास्ता निकल सकता है.
लोग ऐसा मान रहे हैं कि आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण से भाजपा को फायदा मिलेगा. लेकिन, मेरा मानना यह है कि भाजपा ने यह आरक्षण देकर जो राजनीति की है, उससे सारे सवर्ण उसे वोट नहीं देंगे, बल्कि वे सवर्ण वापसी करेंगे, जो भाजपा से नाराज चल रहे हैं.
वैसे भी, दस प्रतिशत आरक्षण को लेकर सवर्णों में एक खींचतान मची हुई है कि पता नहीं इससे कुछ फायदा होगा या नहीं, कितने लोगों को कैसे यह मिलेगा, वगैरह.
इससे अभी मारामारी और बढ़ सकती है, क्योंकि अब भी कई जातियां हैं, जो अपने लिए आरक्षण की बड़े जोर-शोर से मांग कर रही हैं. मराठा, पाटीदार, जाट आदि जातियों में आरक्षण की मांग अरसे से है. अारक्षण का मुद्दा आगे और पेचीदा हो सकता है, लेकिन फिलहाल भाजपा की ओर से एक सिग्नल देने की कोशिश की गयी है कि पार्टी सवर्णों के बारे में सोच रही है.
कांग्रेस बार-बार कहती है कि उसने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटें जीती थी उत्तर प्रदेश में, वे सीटें दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण बहुल क्षेत्रों की थीं. इसलिए कांग्रेस सोच रही है कि उत्तर प्रदेश में इस चीज को दोहराया जाये, क्योंकि कुछ ब्राह्मण भी भाजपा से नाराज हैं.
जाहिर है, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस तो चाहेगी ही कि वह अपने दम पर मजबूत बने और शायद इसीलिए वह गठबंधन में शामिल नहीं हुई है. कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के लिए खुद को संभालने की हर मुमकिन कोशिश करनी ही चाहिए.
सपा-बसपा गठबंधन के मुद्दे वहीं होंगे, जो इस वक्त विपक्ष के मुद्दे हैं. महंगाई, बेरोजगारी, कृषि संकट, व्यापार संकट, जीएसटी आदि. भाजपा के लिए अब भी राममंदिर का मुद्दा रहेगा, भले ही मोदी जी ने कहा है कि कोर्ट के फैसले के बाद ही कुछ होगा.
मुझे नहीं लगता कि कोर्ट इतनी जल्दी फैसला देगा, इसलिए इसको भाजपा भुनाती रहेगी. हां, भाजपा इस बात को पकड़े रखेगी कि नरेंद्र मोदी दमदार नेता हैं और उन्हें फिर मौका मिलना चाहिए. लेकिन, उसको अब इसका फायदा कम ही मिलेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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