कृषि को मिले राहत

वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद कृषि क्षेत्र के सामने चुनौतियां कई स्तरों पर बढ़ती गयीं. भले ही जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी सिमटती रही, लेकिन आज भी कृषि पर देश की आधी आबादी अपने रोटी-रोजगार के लिए निर्भर है. चुनावी साल में किसानों की चिंता और किसान संगठनों का प्रदर्शन जिस तेजी से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 23, 2019 2:23 AM

वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद कृषि क्षेत्र के सामने चुनौतियां कई स्तरों पर बढ़ती गयीं. भले ही जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी सिमटती रही, लेकिन आज भी कृषि पर देश की आधी आबादी अपने रोटी-रोजगार के लिए निर्भर है. चुनावी साल में किसानों की चिंता और किसान संगठनों का प्रदर्शन जिस तेजी से बढ़ रहा है, ऐसे वक्त में सरकार से इसके लिए लोकलुभावन बजट की उम्मीद स्वाभाविक ही है.

सरकार किसानों को उर्वरक, बीज, यूरिया आदि पर सब्सिडी के माध्यम से राहत देती है. अब सभी प्रकार की सब्सिडी को मिला कर कैश के रूप में राहत देने का प्रावधान किया जा रहा है. अगर यह प्रस्ताव लागू होता है, तो सरकार को सालाना इसके लिए 70 हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे. हालांकि, चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा लक्ष्य के मुकाबले लगभग 115 प्रतिशत के स्तर को पार कर चुका है.

ऐसे में अंतरिम बजट में राजकोषीय घाटा पूरा करने की चुनौती एक बड़ी चिंता होगी, लेकिन किसान मतदाताओं को नजरअंदाज करने का जोखिम सरकार कतई नहीं उठाना चाहेगी. ऐसे में उम्मीद है कि सरकार किसानों को राहत देने के लिए नये विकल्पों का इस्तेमाल कर सकती है. बीते बजट में सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को उत्पादन लागत से 1.5 गुना करने का वादा की थी.

हालांकि, इस प्रकार की लाभकारी योजनाओं का फायदा किसानों को तभी हो सकता है, जब वह अपने उत्पादों को उचित/ सरकारी चैनलों तक पहुंचा पाये. अमूमन, छोटे और मझोले किसान गांव में ही अपने उत्पादों को गैरवाजिब दामों पर बेच देते हैं, जिससे वे ऐसी योजनाओं के फायदे से वंचित रह जाते हैं और इसका फायदा बिचौलिये उठा लेते हैं.

देश में छोटे कृषकों की संख्या 80 फीसदी से अधिक है और यही वर्ग कीमतों की बढ़ोतरी, आय में कमी और कर्ज के बोझ में दबे रहने को मजबूर है. कृषि उत्पादन से जुड़ी समस्याओं, मौसम की मार और कर्ज में दबे निराश किसान अक्सर आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठा बैठते हैं. कृषि संकट से किसानों को उबारने के लिए तमाम राज्य सरकारें कर्ज माफी को अपना चुनावी मुद्दा बनाती हैं, लेकिन यह कोई ठोस समाधान नहीं है, यह नीति आयोग भी मानता है.

अहम समस्या है कि कृषि संकट के जाल में फंसे ज्यादातर किसान संस्थागत ऋण तक नहीं पहुंच पाते. महाजनों के कर्ज के चंगुल में फंसने के बाद उनके लिए उबर पाना मुश्किल हो जाता है. बिचौलियों की धोखाधड़ी और महाजनों के कर्ज से किसानों को मुक्त कराने के लिए बड़े स्तर पर कृषि सुधार की पहल करनी होगी.

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहन और रोजगारपरक नीतियां बनाकर स्थायी समाधान खोजने की कोशिश होनी चाहिए. साथ ही कॉरपोरेट को मिलनेवाली सब्सिडी और करों में राहत की तर्ज पर ग्रामीण उद्यमियों को भी प्रोत्साहित करने जैसे फैसले करने होंगे, तभी कृषि और किसानों का कल्याण हो सकेगा.

Next Article

Exit mobile version