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क्षेत्रीय दलों के छुपे पत्ते
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com न तो साल 2014 के आम चुनाव जैसी परिवर्तन की आकांक्षा जोर मार रही है, न ही सत्ता-विरोधी लहर दिख रही है. साल 2019 का लोकसभा चुनाव कई तरह की संभावनाएं ला सकता है. यदि भाजपा-नीत गठबंधन बहुमत पाता है या भाजपा और कांग्रेस में कोई दल सत्ता के करीब […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
न तो साल 2014 के आम चुनाव जैसी परिवर्तन की आकांक्षा जोर मार रही है, न ही सत्ता-विरोधी लहर दिख रही है. साल 2019 का लोकसभा चुनाव कई तरह की संभावनाएं ला सकता है. यदि भाजपा-नीत गठबंधन बहुमत पाता है या भाजपा और कांग्रेस में कोई दल सत्ता के करीब पहुंचता है, तो स्थितियां असामान्य नहीं कही जायेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो?
अगर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में से कोई इतनी सीटें नहीं जीत सका कि विभिन्न क्षेत्रीय दल किसी एक को समर्थन देकर सरकार बनाने में मदद करें, तब? देश ऐसे चुनाव परिणाम पहले भी देख चुका है, जब क्षेत्रीय दलों के चुनावोपरांत गठबंधन की सरकार बनाने में राष्ट्रीय पार्टी बाहर से समर्थन देने को मजबूर हुई.
छोटे-छोटे दलों की ‘खिचड़ी’ सरकारें स्थिर नहीं होतीं, यह भी हम खूब देख चुके हैं. इसके बावजूद यह एक बड़ी संभावना बनी रहती है. क्षेत्रीय दलों के नेताओं के मन में एक बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की महत्वाकांक्षा इसी कारण फलती-फूलती रही है. इस बार भी यह बहुत जोर मार रही हो, तो कोई आश्चर्य नहीं.
विरोधी दलों की कोलकाता रैली में इस पर सभी सहमत थे और पुरजोर कह रहे थे कि देश तथा लोकतंत्र को बचाने के लिए भाजपा को हराना आवश्यक है.
इस उद्देश्य के प्रति सभी ने संकल्प भी व्यक्त किया, लेकिन ऐसी कोई राह नहीं निकाली कि वे भाजपा के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा या गठबंधन बना लेंगे. कोलकाता रैली के बाद फिर स्पष्ट हुआ है कि ज्यादातर क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में भाजपा को शिकस्त देने की हरचंद कोशिश करेंगे. उनमें किसी भी तरह का गठबंधन चुनाव बाद ही होने के आसार हैं. तेलुगु देशम और एनसीपी जैसे चंद दल ही हैं, जो अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके भाजपा का मुकाबला करनेवाले हैं.
कहा जा सकता है कि इसके पीछे क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा ही है. उनकी नजर चुनाव बाद पैदा होनेवाली स्थितियों का अधिक से अधिक लाभ उठाने पर टिकी हुई है. इसलिए वे चुनाव-पूर्व किसी प्रतिबद्धता से बच रहे हैं.
सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दो महत्वपूर्ण दलों- सपा और बसपा का गठबंधन हो चुका है. पिछले चुनाव नतीजों का सामान्य गणित, जो आवश्यक नहीं कि सही ही बैठे, कहता है कि इस गठबंधन से भाजपा को पचास सीटों तक का नुकसान हो सकता है.
भाजपा के लिए यह बहुत बड़ा धक्का होगा. सपा-बसपा मानकर चलेंगे ही कि उनके पक्ष में इससे भी अच्छा परिणाम आयेगा. मान लिया कि सपा-बसपा को उत्तर प्रदेश में 50 सीटें मिल जाती हैं, तो क्या वह लोकसभा में एक बड़ी ताकत नहीं होगी? किसी राष्ट्रीय दल के बहुमत से काफी दूर रह जाने पर वह स्वयं सत्ता की दावेदार नहीं बनेगी?
समझा जा सकता है कि ममता बनर्जी की भाजपा विरोधी विपक्षी रैली को पूरा समर्थन देने के बावजूद मायावती स्वयं उसमें शामिल क्यों नहीं हुईं. उन्होंने अपना प्रतिनिधि भेजा. अखिलेश यादव वहां गये, क्योंकि अभी वे प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने के लिए काफी नये हैं. मायावती के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता.
इसी कारण ने राहुल गांधी को भी उस विशाल विपक्षी मंच से दूर रखा, हालांकि उनके एक से ज्यादा प्रतिनिधि वहां मौजूद थे. राहुल प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने जाते हैं.
ममता बनर्जी हाल के महीनों में भाजपा-विरोधी क्षेत्रीय नेताओं की अग्रिम पंक्ति में रही हैं. कोलकाता रैली का आयोजन उन्होंने बंगाल में वामपंथियों के मुकाबले भाजपा-विरोध की अपनी शक्ति दिखाने के लिए ही नहीं, राष्ट्रीय फलक पर अपनी धमक जताने के लिए भी किया. वर्तमान लोकसभा में विपक्ष में कांग्रेस के बाद तृणमूल कांग्रेस सबसे बड़ा दल है.
तो वे अपने दांव क्यों नहीं चलेंगी? ऐसी स्थितियां भी तो बन सकती हैं, जब क्षेत्रीय क्षत्रपों को नेतृत्व के लिए उनके नाम पर राजी होना पड़े. देवगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल की तुलना में ममता बनर्जी कहीं ज्यादा परिचित और सक्रिय नाम नहीं हैं क्या? मायावती और ममता में चुनाव करना पड़े, तो अन्य क्षेत्रीय दल किसके पक्ष में खड़े होंगे?
कांग्रेस तीन राज्यों में सत्ता में वापस अवश्य आ गयी है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के मुकाबले अकेली पार्टी होने के बावजूद उसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.
कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में उसने बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल जैसे बड़े राज्यों में उसके पैर उखड़े हुए हैं. उत्तर-पूर्व में उसका सफाया है. पिछले लोकसभा चुनाव में वह मात्र 44 सीटों पर सिमट गयी थी. इस बार आखिर उसे कितना फायदा हो जायेगा? कुछ अजूबा घटित हो तो नहीं कह सकते, वर्ना सौ-सवा सौ सीटें पाना उसके लिए बड़ी उपलब्धि होगी.
भाजपा दो सौ के आंकड़े से नीचे रह जाये, तो भी कांग्रेस सत्ता की दावेदारी कैसे कर सकेगी? स्वाभाविक है कि वह भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए क्षेत्रीय दलों को समर्थन देगी. यह बड़ा कारण है कि क्षेत्रीय दल फिलहाल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.
उलटे, वे कांग्रेस से स्वयं समर्थन की आशा लगा रहे हैं. सपा-बसपा ने कांग्रेस को गठबंधन में शामिल नहीं करने के बावजूद सोनिया और राहुल की सीटों पर चुनाव नहीं लड़ने का फैसला क्या यूं ही किया है?
आसन्न आम चुनाव के परिणामों की ऐसी संभावनाएं क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाओं को हवा दे रही हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भाजपा के विरुद्ध एक मंच पर इतनी बड़ी जुटान होने के बावजूद महागठबंधन की संभावना दूर-दूर तक नहीं दिख रही. ये क्षेत्रीय दल भाजपा को हराना चाहते हैं, लेकिन उसके लिए अपने राजनीतिक हितों की तिलांजलि नहीं दे सकते. भाजपा को परास्त करने की रणनीति के साथ-साथ उन्हें अपने लिए अधिकतम संभावनाओं के द्वार खोले रखने हैं.
यह विरोधाभास आज की चुनावी राजनीति का सत्य है. सत्य यह भी है कि इसमें राजनीतिक अस्थिरता, उठा-पटक और जल्दी-जल्दी चुनाव के खतरे शामिल हैं. जनता का बड़ा वर्ग मोटे तौर पर अस्थिरता और अवसरवादी राजनीति को पसंद नहीं करता, लेकिन जातीय-धार्मिक-क्षेत्रीय गोलबंदियों से प्रभावित मतदान ऐसी स्थितियां ले ही आता है. ऐसी संभावना भांप कर ही भाजपा नेता अब जनता को ‘खिचड़ी’, ‘स्वार्थी’ और ‘अस्थिर सरकारों’ से आगाह करने में लग गये हैं. यानी, सभी दल अपने कुछ पत्ते छुपा कर खेल रहे हैं.
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