मुद्दा क्यों नहीं नशामुक्ति का सवाल?
योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com अगर औरतों को इस देश में एक दिन के लिए राजपाट मिल जाये, तो वे क्या फैसला करेंगी? आप जब, जहां चाहे औरतों के समूह से यह सवाल पूछ लें, आपको एक ही जवाब मिलेगा. लेकिन, हमारे लोकतंत्र में यह मुद्दा राष्ट्रीय चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बनता? तीन […]
योगेंद्र यादव
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
yyopinion@gmail.com
अगर औरतों को इस देश में एक दिन के लिए राजपाट मिल जाये, तो वे क्या फैसला करेंगी? आप जब, जहां चाहे औरतों के समूह से यह सवाल पूछ लें, आपको एक ही जवाब मिलेगा. लेकिन, हमारे लोकतंत्र में यह मुद्दा राष्ट्रीय चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बनता?
तीन अलग-अलग मौकों पर यह सवाल मेरे सामने मुंह बाये खड़ा हुआ था. पिछले साल कर्नाटक के चुनाव में मैं मांड्या जिले में प्रचार करने गया था.
महिला समर्थकों के समूह से बात कर रहा था. किसान की आय बढ़ाने के अधिकार की वकालत कर रहा था. महिलाएं सहमत थीं, लेकिन उत्साहित नहीं. मैंने कारण जानना चाहा, तो जवाब सीधा था ‘घर में और पैसा आने से क्या होगा? और बोतल आ जायेगी. हमारा कष्ट और बढ़ जायेगा.’
पिछले साल ही हरियाणा के रेवाड़ी जिले में स्वराज पदयात्रा करते हुए मैंने इस मुद्दे की गहराई को समझा था. महिलाएं खेती-किसानी के संकट के प्रति सजग थीं, पानी बचाने की बात ध्यान से सुनती थीं, लेकिन जब दारू का जिक्र आता था तभी उनके कान खड़े होते थे.
शराब के ठेकों को हटाने की मांग लाउडस्पीकर से सुनते ही महिलाएं घर से बाहर आती थीं, अपना दर्द सुनाती थीं. एक महिला ने गुस्से में मुझसे कहा ‘बेटा कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता कि हम बोतलों में जहर डलवा दें! एक ही बार में झंझट खत्म हो जाये!’
तीसरी बानगी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले की है. पिछले सप्ताह वहां एक विशाल दारूबंदी रैली में हजारों महिलाएं यवतमाल में पहुंची थीं. हर महिला की अपनी दर्द भरी दास्तां थी. किसी ने पति खोया था, तो किसी ने पुत्र.
टांडा में पिछले साल बंजारा समाज के 30 लोग शराब से मरे. औरतें बताती हैं कि 10वीं क्लास में पढ़नेवाले बच्चे शराब पीने लगे हैं. अगर औरत पैसा छुपाकर रोकने की कोशिश करे, तो मारपीट और कलह बढ़ता है. घर में पैसा नहीं तो दारू के लिए अनाज, बर्तन, साड़ी, जो हाथ में लगा बेच आयेंगे. हर औरत की एक आंख दुख से गीली थी, दूसरी गुस्से से लाल थी.
यह देश के हर प्रांत, हर गांव और हर मोहल्ले की कहानी है. शराब की लत में समाज डूब रहा है, जिंदगियां सिमट रही हैं, औरतें पिट रही हैं, बचपन सहम रहा है, परिवार बिखर रहे हैं, नयी पीढ़ी बरबाद हो रही है, पर हमारे समाज के कर्णधार चुप हैं. सरकारें ठेके इस तत्परता से खोल रही हैं, मानो वहां शराब नहीं दूध बंट रहा हो. नौ सौ ठेके खोलने के बाद नेताजी एक नशामुक्ति केंद्र का उद्घाटन कर हज भी कर लेते हैं.
नतीजे हमारे सामने हैं. साल 2005 से 2016 के बीच दस साल में शराब की खपत दोगुनी हो गयी है, फिलहाल देश में 1,200 करोड़ लीटर शराब पी जा रही है. हर साल लगभग तीन लाख लोग शराब के चलते बीमारी या एक्सीडेंट में मारे जा रहे हैं. देश के 10 प्रतिशत मर्द को शराब के नशे कि लत लग चुकी है. बीते कुछ सालों में शराब के अलावा दूसरे नशों में भी तेजी से वृद्धि हुई है. पंजाब और पूर्वोत्तर में नशे की समस्या ने एक विकराल स्वरूप ले लिया है.
जैसे-जैसे शराब बढ़ रही है, वैसे-वैसे शराब के खिलाफ आंदोलन भी बढ़ रहे हैं. गांधीवादी आंदोलनों के प्रभाव के चलते गुजरात में शुरू से ही दारूबंदी रही है.
अस्सी के दशक में आंध्र प्रदेश में महिलाओं का बड़ा शराब विरोधी आंदोलन हुआ. नब्बे के दशक में हरियाणा में कुछ साल के लिए शराब बंदी हुई. नीतीश कुमार ने पिछले चुनाव के बाद बिहार में शराबबंदी की घोषणा की. महाराष्ट्र में वर्धा जिले में पहले से शराब बंदी थी. पिछले कुछ साल में गढ़चिरौली और चंद्रपुर में भी शराब बंद की गयी है, अब यवतमाल में भी इसी मांग को लेकर आंदोलन चल रहा है. इन राज्यों के बाहर देशभर में शराब के खिलाफ महिलाओं के आंदोलन चल रहे हैं.
लेकिन, पैसे और सत्ता का गठबंधन नशामुक्ति के सवाल को राष्ट्रीय सवाल बनने नहीं देता. शराब की लॉबी इतनी बड़ी और इतनी ताकतवर है कि उसके सामने न सरकार टिकती है, न पार्टी, न ही कोर्ट और कचहरी.
एक अनुमान के अनुसार, भारत में हर साल शराब की खपत कोई ढाई लाख करोड़ रुपये की है. यानी कि शराब खरीदने में उतना पैसा खर्च होता है, जितना सरकार देश की रक्षा बजट में लगाती है. सरकारें शराब की बंधक हैं, क्योंकि राज्य सरकारों के पास टैक्स लगाने के बहुत कम रास्ते हैं. आबकारी टैक्स उसकी आय का एक बड़ा हिस्सा है. हरियाणा जैसे राज्य में तो शराब का पैसा सीधा पंचायत को देने की व्यवस्था भी हो गयी है, इसलिए अब पंचायतें भी बंधक हैं.
शराब से इस एक नंबर की कमाई के अलावा सरकार में ऊपर से नीचे तक, मंत्रियों से सरपंच तक, लगभग हर स्तर पर शराब के ठेकेदार दो नंबर का पैसा बांटते हैं.
पहले शराब के ठेकेदार नेताओं को पैसा देते थे, अब वह खुद चुनाव लड़ने लग गये हैं और एमएलए, एमपी एवं मंत्री बनने लगे हैं. इसलिए पार्टियां भी शराब के मामले पर चुप्पी साध जाती हैं या संभलकर बोलती हैं. स्वार्थ के इस गठबंधन का मुकाबला सिर्फ एक बड़े जनांदोलन से ही किया जा सकता है.
नशे के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करना आसान नहीं है. इतने बड़े स्वार्थ का मुकाबला करने के अलावा ऐसे आंदोलन की अंदरूनी दिक्कतें भी हैं. शराब के विरुद्ध आंदोलन अक्सर एक नैतिक भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिससे शराब का उपभोग करनेवाले और उसके शिकार लोग ऐसे आंदोलन के दुश्मन बन जाते हैं. दूसरी दिक्कत यह है कि नशामुक्ति के आंदोलन अक्सर पूर्ण दारूबंदी की मांग करते हैं.
लेकिन पूर्ण दारूबंदी का अनुभव देश में अच्छा नहीं रहा है. कहने को गुजरात में शराबबंदी है, लेकिन जब चाहे वहां बोतल उपलब्ध हो जाती है. जहां-जहां पूर्ण शराबबंदी लागू हुई, वहां शराब की स्मगलिंग शुरू हुई और माफिया भी पैदा हुए. इसलिए शराब के प्रकोप से बचाने के लिए नशामुक्ति के आंदोलनों को पूर्ण दारूबंदी की मांग में सुधार करने की जरूरत है.
दारू की बिक्री को पूर्णत: बंद करने की बजाय दारू की उपलब्धि को बहुत सीमित करना, शराब के ठेकों की संख्या में बहुत कमी करना, स्थानीय महिलाओं को दारू का ठेका बंद करवाने का अधिकार देना और शराब की लत के शिकार लोगों को नशामुक्ति केंद्र और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना कहीं बेहतर एजेंडा होगा.
क्या आनेवाले चुनाव में कोई भी पार्टी इसे अपने मेनिफेस्टो का हिस्सा बनायेगी? क्या कोई आंदोलन इस मुद्दे पर पार्टियों को कटघरे में खड़ा करेगा?