चीन की आर्थिक मंदी के सबक
पुष्पेश पंत विदेश मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो पिछले कई दशक से विश्व के किसी भी दूसरे देश की तुलना में सबसे तेज आर्थिक विकास दर दर्ज करती रही है. इसलिए, जब वहां मंदी की पदचाप सुनायी देती है, तो भारत समेत कई देशों में गंभीर आशंकाएं […]
पुष्पेश पंत
विदेश मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो पिछले कई दशक से विश्व के किसी भी दूसरे देश की तुलना में सबसे तेज आर्थिक विकास दर दर्ज करती रही है. इसलिए, जब वहां मंदी की पदचाप सुनायी देती है, तो भारत समेत कई देशों में गंभीर आशंकाएं मुखर होने लगती हैं.
आज इस बात में संदेह नहीं रहा कि चीन अभूतपूर्व आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. कभी दहाई का आंकड़ा आदतन पार करनेवाली चीन की विकास दर गिर कर 4.5 प्रतिशत के इर्द-गिर्द मंडरा रही है.
चंद्रमा वाले कैलेंडर के अनुसार, जो बड़ा त्योहार चीनी लोग जनवरी में मनाते हैं, उसकी छुट्टियां काफी पहले घोषित कर दी गयी हैं और इस बार लंबी होनेवाली हैं, ताकि कारखानों में काम करनेवाले मजदूरों-कारीगरों की दिहाड़ी का खर्च कम किया जा सके. जब से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन के खिलाफ व्यापार जंग (ट्रेड वार) छेड़ी है और उसके खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगाये हैं, चीन के निर्यात चिंताजनक रूप से घटे हैं.
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चीन ने अपने अंतरराष्ट्रीय बाजार का तिहाई हिस्सा गंवा दिया है. सिर्फ एप्पल जैसे महंगे फोन तथा लैंडरोवर जैसी गाड़ियां खरीदनेवाले कम हुए हैं. घरेलू बाजार में भी कमाई कम होने से उपभोक्ता सामग्री की मांग अचानक घटी है. छोटे उद्यमी अपने कारोबार के लिए ऋण जुटाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं और सरकार इनकी सहायता करने में फिलहाल असमर्थ है.
कुछ लोगों का मानना है कि आनेवाले दिनों में चीन की दिक्कतें और बढ़ सकती हैं, सिर्फ इस वजह से नहीं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के तेवर नर्म होने के आसार नजर नहीं आते, बल्कि इसलिए भी कि ब्रेग्जिट के बाद यूरोपीय समुदाय भी विकल्प के रूप में प्रकट नहीं हो सकता.
ऐसे विशेषज्ञों की संख्या भी कम नहीं है, जिनका मानना है कि चीन की परेशानी का कारण अमेरिका के तुनकमिजाज राष्ट्रपति ही नहीं हैं. चीनी बुलबुले को तो एक दिन फूटना ही था! चीन ने सामरिक कारणों से एशिया और अफ्रीका के देशों में जो दैत्याकार निवेश किया है, उसने उसकी अर्थव्यवस्था पर कमरतोड़ बोझ डाला है.
भारत में चीन की खस्ता हालत से प्रसन्न होनेवाले अनेक हैं. इनमें से कुछ का मानना है कि चीन जिस जगह को खाली कर रहा है, उसे भारत भर सकता है. हमारी राय में यह गलतफहमी निराधार है और घातक ही साबित हो सकती है.
पहली बात तो यह है कि जैसी पुरानी कहावत है ‘मरा हाथी भी सवा लाख का होता है!’, भारतीय अर्थव्यवस्था की कोई तुलना चीन की अर्थव्यवस्था से नहीं की जा सकती. भारत अपने को पांचवें या चौथे नंबर वाली अर्थव्यवस्था कह खुश होता रहे, उसका आकार चीन की अर्थव्यवस्था का दसवां हिस्सा ही है. अभी हाल तक चीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत का सबसे बड़ा साझेदार था (आज अमेरिका उसे पछाड़ चुका है), पर यह सुझाना बुद्धिमानी नहीं कि अब भारत इस व्यापार में व्याप्त असंतुलन समाप्त कर सकता है. चीन में मंदी के बाद भारत से आयात भी प्रभावित होंगे.
इसके अलावा अमेरिका के दबाव में भारत चीन के साथ (प्रतिबंधों के डर में) व्यापार का दायरा बढ़ाने का दुस्साहस नहीं कर सकता. अंत में यह जोड़ने की जरूरत है कि चीन मंदी की चपेट में है, परंतु उसके आत्मविश्वास में कमी नहीं आयी है. उसके नेताओं को भरोसा है कि उनसे कहीं अधिक नुकसान अमेरिका को झेलना पड़ेगा.
इस आत्मविश्वास का एक और कारण यह है कि चीन अमेरिका या भारत की तरह जनतंत्र नहीं है.सरकार जनमत की परवाह किये बिना राष्ट्रहित में कठोर नीतियां लागू कर सकती है. चीन की जनता को तंगी और अभाव में रहने का अनुभव है. आज की तुलना में कहीं बुरे दिन उन्होंने देखे हैं. माओ युग के अंत के बाद जन्मी नौजवान पीढ़ी को भले ही इसकी याद न हो, लेकिन उनके अभिभावकों के लिए उपभोगवादी जीवन शैली पारंपरिक नहीं है.
कन्फ्यूशियाई दर्शन से अनुशासित चीनी समाज में व्यक्ति समष्टि से गौण समझा जाता है, अतः राष्ट्रहित में पेट काटना वहां शहादत नहीं समझा जाता. हालांकि, देंग सियाओ पिंग के सुधारों के बाद से चीन का कायाकल्प हुआ है लेकिन गुआंगदोंग, शांघाई जैसी जगहों को पूरे चीन का प्रतिनिधि नहीं समझा जा सकता.
चीन ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों को देश के अन्य प्रदेशों से अलग-थलग रखा है और न ही इन जगहों की समृद्धि में दूरस्थ देहाती इलाके की बराबर की हिस्सेदारी रही है. इसलिए यह सुझाना तर्कसंगत है कि चीन अपने यहां आयी मंदी का सामना दूसरे कई विकसित देशों की तुलना में बिना सामाजिक उथल-पुथल या फिर राजनीतिक अस्थिरता का सामना किये बिना ही कर सकता है.
अब लौटते हैं भारत की ओर. भाजपा-एनडीए की साल 2014 वाली जिस जीत ने त्वरित समावेशी विकास की आशा को जन्म दिया था, वह अब धुंधलाने लगी है. कृषि क्षेत्र ही नहीं, बल्कि औद्योगिक उत्पादन भी संकटग्रस्त है. बेरोजगारी बढ़ रही है और बैंकिंग के क्षेत्र में दैत्याकार भ्रष्टाचार का भांडा फूटा है. नोटबंदी और जीएसटी आदि के उतावली में लागू किये जाने से देश की आर्थिक विकास दर बुरी तरह प्रभावित हुई है.
अमेरिका में ट्रंप की उग्र राष्ट्रवादी नीतियों ने विश्व व्यापार संगठन वाली व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है और भारत पर भी रोक-टोक बढ़ाई है. फिलहाल ईरान के साथ आर्थिक संबंधों में कुछ रियायत दी गयी है, पर इसे कभी भी समाप्त किया जा सकता है.
ब्रेग्जिट के बाद ब्रिटेन और यूरोपीय समुदाय तथा उसके सदस्य फ्रांस-जर्मनी जैसे बड़े देश भी भारत की आर्थिक विकास दर को तेज करनेवाले योगदान में असमर्थ हैं. वहीं पश्चिम एशिया/ अरब जगत का संकट समाप्त होता नजर नहीं आता. इराक, सीरिया, सऊदी अरब, खाड़ी देश सभी जगह हालात ऐसे हैं कि भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा के बारे में निश्चिंत नहीं हो सकता.
पड़ोसी पाकिस्तान के साथ संबंधों में तनाव घटने की संभावना कम है, इसलिए सामरिक सुरक्षा के खर्च में कटौती नहीं की जा सकती. यह वर्ष आम चुनाव का है और इस कारण सरकार का ध्यान अपनी सरहद के परे दूसरे किसी देश के आर्थिक संकट की तरफ कम जा रहा है. हकीकत यह है कि चीन की आर्थिक मंदी और वहां की सरकार की प्रतिक्रिया से कई सबक सीखने की जरूरत हमारे नेताओं को है.