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अफगानिस्तान में बदलते हालात

आलोक कु. गुप्ता एसोसिएट प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि akgalok@gmail.com पिछले वर्ष दिसंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान और सीरिया से अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा की. सीरिया से सेना वापसी इस वर्ष जनवरी में प्रारंभ भी हो गयी है. लगभग 14,000 से भी ज्यादा अमेरिकी सैनिक अभी अफगानिस्तान में हैं और […]

आलोक कु. गुप्ता

एसोसिएट प्रोफेसर,

दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि

akgalok@gmail.com

पिछले वर्ष दिसंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान और सीरिया से अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा की. सीरिया से सेना वापसी इस वर्ष जनवरी में प्रारंभ भी हो गयी है. लगभग 14,000 से भी ज्यादा अमेरिकी सैनिक अभी अफगानिस्तान में हैं और अमेरिका तत्काल प्रभाव से लगभग 7,000 सैनिकों की वापसी करना चाहता है.

अमेरिकी सैनिक तालिबान के खिलाफ अफगानी सेना की मदद कर रहे हैं और उन्हें प्रशिक्षित भी कर रहे हैं. उनका प्रयास रहा है कि जब अफगानी सेना सक्षम हो जायेगी, तब वे धीरे-धीरे वहां से वापसी करेंगे.

परंतु स्थिति अभी ऐसी नहीं बनी है कि अफगानी सैनिक तालिबान का सामना कर सकें. ऐसे में अमेरिकी सेना का वापस जाना जहां एक ओर अफगानिस्तान के लिए नयी चुनौती खड़ी कर देगा, वहीं भारत के लिए यह एक अवसर बन सकता है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञों के अनुसार, भारत को अमेरिका पर दबाव बनाने की जरूरत है कि वह सेना वापसी की न सोचे.

मुख्य रूप से अफगानिस्तान के लिए दो चुनौतियां होंगी. प्रथम तो यह कि अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान का मनोबल ऊंचा होगा, अफगान सरकार को मजबूरन तालिबान के आगे घुटने टेकने पड़ेंगे और उनको सरकार में साझेदार बनाना पड़ेगा.

दूसरा यह कि तालिबान ज्यादातर पाकिस्तान द्वारा समर्थित हैं और बदलती परिस्थिति में तालिबान के मार्फत पाकिस्तान भी अफगान पर अपनी पकड़ मजबूत कर पायेगा और अफगानी शासन-प्रशासन पर पाकिस्तान का दबदबा बनेगा. एक तीसरी चुनौती भी दिखती है कि इराक एवं सीरया से आईएस के बचे-खुचे आतंकियों के लिए अफगानिस्तान एक सुरक्षित पनाहगाह की तरह बन गया है और जो तालिबान का समर्थन कर रहा है.

यह सब भारत के लिए भी कई चुनौती पेश करेगा, तो साथ ही कुछ अवसर का द्वार भी खुलेगा. वर्ष 2001 में जब तालिबान शासन का अंत हुआ, तब अमेरिका और भारत ने एक साझेदार के रूप में अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित कर स्थिर सरकार कायम करने की कवायद शुरू की थी.

दोनों ने अफगानिस्तान के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पुनर्निर्माण के लिए साझा प्रजेक्ट शुरू किये थे. तत्पश्चात अमेरिका इराक में व्यस्त हो गया और अब शायद अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहने के सामरिक फायदे नजर नहीं आ रहे हैं.

अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान और पाकिस्तान जैसे तत्व जब अफगानिस्तान के अंदरूनी प्रशासन में मजबूत होंगे, तो यह भारत के लिए कड़ी चुनौती होगी. निश्चय ही इससे पाकिस्तान को सामरिक फायदे होंगे और उसे अफगानिस्तान में विस्तार का अवसर मिलेगा, जिसके दो कारण हैं.

पहला- प्रारंभ से ही भारत की अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में जो भूमिका रही है, वह पाकिस्तान की आंखों की किरकिरी बनी रही है. दूसरा- चीन भी मूकदर्शक बनकर पाकिस्तान का भागीदार रहा है, क्योंकि वह भी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में साझेदार बनकर आर्थिक लाभ उठाने का इच्छुक है और धीरे-धीरे वहां प्रवेश भी कर गया है. अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी भारत के लिए एक तीसरा बड़ा खतरा भी बन सकता है, क्योंकि इससे कश्मीर में आतंकियों को मनोबल और सहयोग दोनों मिलने के आसार बढ़ जायेंगे.

अत: भारत को इस हालात को गंभीरता से लेने की जरूरत है और आनेवाली चुनौती को अवसर के रूप में बदलने के लिए कूटनीतिक प्रयास की आवश्यकता है.

भारत को यह समझने की जरूरत है कि तालिबान के मजबूत होने से चीन के लिए भी खतरा बढ़ सकता है, क्योंकि उनके झिनजियांग प्रांत में कश्मीर से कम समस्या नहीं है. भारत को अपनी कूटनीति का उपयोग कर तालिबान के साथ वार्ता के प्रयास कर अफगान सरकार और तालिबान के बीच सामंजस्य बनाने का प्रयास करना चाहिए. भारत पहले से ही वहां विकास के कार्यो में लगा है, अतः भारत के लिए विस्तार की संभावनाएं प्रबल हैं.

जब मोदी जी द्वारा अफगानिस्तान को पुस्तकालय के लिए सहयोग राशि दी गयी, तो ट्रंप ने उसका मजाक उड़ाया था और कहा था कि भारत को अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजकर वहां की सेना की मदद करनी चाहिए और शांति के लिए अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए. अफगानिस्तान में भारतीय सेना की मौजूदगी भारत के क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व दोनों को मजबूत करेगा और इससे कई तरह के सामरिक फायदे होंगे.

भारतीय सेना की मौजूदगी में भारतीय कर्मियों का मनोबल भी मजबूत होगा और वे वहां पुनर्निर्माण एवं विकास कार्यों को मजबूती से अंजाम दे पायेंगे. लेकिन, अगर यह मौका चीन हासिल कर लेता है, तो भारत के लिए सामरिक एवं आर्थिक हानि के अलावा कुछ नहीं बचेगा. इसलिए भारत को इस मौके का सदुपयोग करना चाहिए.

भारत वर्तमान में ‘कनेक्ट सेंट्रल एशिया’ की विदेश नीति को वास्तविक आकार देने का इच्छुक है. इस नीति को सफल बनाने के लिए भारत के लिए अफगानिस्तान अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि सेंट्रल एशिया के सभी देश स्थल-अवरुद्ध (लैंड-लॉक्ड) हैं.

मध्य एशिया के साथ आर्थिक या किसी भी स्तर के संबंध अफगानिस्तान पर पकड़ बनाये बिना संभव नहीं हो पायेगा. ऐसे में भारत के समक्ष अफगानिस्तान में बने रहने के साथ अपनी पकड़ को मजबूत बनाने के प्रयास करने के अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है.

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