बुधवार को रांची स्थित सचिवालय में विधायक अकील अख्तर तथा मुख्य सचिव के बीच जो भी हुआ, वह न तो एक दिन का नतीजा है और न ही भुला देने लायक मामला. यह ठीक है कि 15 सूत्री कार्यक्रम में कोई काम नहीं हो रहा है. पांच साल में सिर्फ दो बैठकें हुई हैं. बुधवार को आहूत बैठक भी और पहले होनी थी, पर कभी मुख्य सचिव की तबीयत के कारण, तो कभी मेयर चुनाव के कारण टलती रही.
अदालतों के संबंध में मुख्य न्यायाधीश द्वारा आहूत बैठक की तैयारी को लेकर बुधवार को सीएस महाधिवक्ता तथा विधि सचिव के साथ बैठक में थे. विधायक तो समय पर आ गये थे, पर केंद्र का प्रतिनिधि गैरहाजिर था. बैठक में देरी को लेकर बात बिगड़ गयी. क्या यह महज संयोग है कि मुख्यमंत्री ने ठीक एक दिन पहले कहा था कि अधिकारी काम करें नहीं तो जनता बांध कर मारेगी और दूसरे ही दिन ऐसा प्रकरण घटित होता है कि विधायक पर अपशब्द बोलने और मुख्य सचिव पर गेट आउट कहने का आरोप लगता है.
दरअसल सुनने की क्षमता जिस सहिष्णुता से आती है, आज के जनतंत्र में उसकी घोर कमी हो गयी है. असहमति की आजादी और विवेक के जिस सम्मान पर जनतंत्र की नींव टिकी है वह भी कहीं न कहीं खोखली होती जा रही है. विधायिका तथा कार्यपालिका के बीच घटते परस्पर सम्मान-भाव तथा संवादहीनता के उदाहरण लगातार सामने आते रहे हैं. यही कारण है कि राज्य की मानव संसाधन विकास मंत्री को सरेआम कहना पड़ता है कि अधिकारी उनकी बात नहीं मानते और उनके विभाग के अधिकारी व कर्मचारी एक साल में 15 माह का वेतन उठाते रहे.
स्वास्थ्य मंत्री चाहते हैं कि विभाग में संविदा पर खट रहे कर्मचारियों का नियमितीकरण हो, लेकिन उनके अधिकारी को इससे कोई सरोकार नहीं. राज्य में अभी तक कई विभागों में नियुक्ति नियमावली और सेवा संहिता अस्पष्ट है. यह ठीक है कि अधिकारी परीक्षा पास कर आते हैं और उन्हें सीधे कटघरे में खड़ा होना पड़ता है. दूसरी ओर विधायक को भी तो चुनाव की कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है. इनके ऊपर भी तो जनाकांक्षाओं का बोझ होता है. लेकिन इस सबके बीच संवाद के सेतु और सहिष्णुता की औषधि बचती है जिससे परस्पर सम्मान का भाव बचा रहता है.