वादों पर छला जाता देश

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।। वरिष्ठ पत्रकार मोदी के समक्ष गंठबंधन की मजबूरियां भी नहीं हैं. लेकिन वे ‘कुछ अलग’ कहां कर रहे हैं? मनमोहन सरकार द्वारा रेल भाड़े में वृद्धि के प्रयास पर मोदी ने ट्विट किया था-‘संसद से पास कराये बिना यात्री किराया/भाड़ा बढ़ाना ठीक नहीं.’ न रेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने अभी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 26, 2014 6:23 AM

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।

वरिष्ठ पत्रकार

मोदी के समक्ष गंठबंधन की मजबूरियां भी नहीं हैं. लेकिन वे ‘कुछ अलग’ कहां कर रहे हैं? मनमोहन सरकार द्वारा रेल भाड़े में वृद्धि के प्रयास पर मोदी ने ट्विट किया था-‘संसद से पास कराये बिना यात्री किराया/भाड़ा बढ़ाना ठीक नहीं.’

न रेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने अभी एक महीने ही हुए हैं और देश हारा हुआ-सा महसूस करने लगा है. नतीजे के तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनके बहुप्रचारित ‘अच्छे दिनों’ की ‘अगवानी’ बंद कर दी है, तो प्रिंट मीडिया के उन महानुभावों ने भी, जो अभी कम से कम छह महीने मोदी सरकार की आलोचना से दूर रहने के मूड में थे, अपना परहेज तोड़ दिया है. और तो और, सरकारों द्वारा खुद को गरीबों के लिए समर्पित बताकर जिस उच्च व उच्च मध्यवर्ग की ‘सेवा’ करने व ‘मेवा’ खाने का रिवाज है और जिसने लोकसभा चुनाव में उसे वांछित बदलाव की कामना में अतिरिक्त उत्साह से मोदी का समर्थन किया था, ‘बदल गये मोदी’ ने उसके ‘विजयोन्माद’ की खुमारी भी उतार डाली है.

दूसरी ओर निचला तबका छला हुआ-सा सोच रहा है कि कहां तो महंगाई को नियंत्रित नहीं, पूरी तरह खत्म करने की बात थी और कहां उसे बढ़ती जाने के लिए खुला छोड़ दिया गया है. रेल किराये व भाड़े में हुई भारी वृद्धि ने नयी सरकार को अपनी सत्ता के दूसरे महीने में ही जनरोष का प्रदर्शन ङोलने को अभिशप्त कर दिया है.

कोई देश अपनी सरकारों को दोबारा-तिबारा मौका देकर या बदल-बदल कर भी हारने, निराश होने व खीझने लगे, यहां तक कि एक के बाद एक, निरंकुश से लेकर कामचलाऊ बहुमत वाली, नाजुक संतुलन पर टिकी, गंठबंधनों की, वामपंथियों द्वारा नियंत्रित और दक्षिणपंथी सरकारें बनवाकर भी संतुष्ट न हो सके, तो इसे खतरे की घंटी के तौर पर लेना व कारणों की तफ्तीश में लगना जरूरी है.

सच पूछिए तो देश लोकसभा चुनावों के दौरान ही हारने लगा था. विकल्पहीनता और भाजपा व कांग्रेस द्वारा एक दूसरे की काया में प्रवेश की कोशिशों के बीच ठौर तलाशती उसकी परिवर्तनकामना देख रही थी कि कांग्रेस ने सत्ता व शक्तियों के केंद्रीकरण की अपनी परंपरा के विपरीत अचानक उनके विकेंद्रीकरण की वकालत शुरू कर दी है, जबकि भाजपा ने केंद्रीकरण को ‘हर-हर मोदी, हर-घर मोदी’ की हद तक अंगीकार कर लिया है. हां, इस हार का प्रकटीकरण तब हुआ, जब मोदी के ‘अच्छे दिन’ देश की परिवर्तनकामना से छल करके भाजपा को इंदिरा गांधी के काल की कांग्रेस में बदल कर जिता लाये और शपथग्रहण के महीने भर बाद 15 जून को उन्हें पता चला कि अच्छे दिनों से पहले राष्ट्रहित में कुछ कठोर फैसले जरूरी हैं.

लोकसभा चुनाव में जो कॉरपोरेट मोदी को सिर आंखों पर बिठाये रहा, वह मनमोहन से इसीलिए तो नाराज था कि गंठबंधन की मजबूरियों के कारण वे उक्त कठोर फैसले नहीं कर पा रहे थे. कांग्रेस जैसे ही चरित्र के साथ सत्ता में आकर अब वह किसी परिवर्तन का अहसास कैसे करा सकती है? उन्हीं आर्थिक नीतियों के तहत वही जनविरोधी फैसले मोदी को जरूरी लगने लगे हैं, तो वे उन्हें जब भी करें, देश को तो हारना ही है. इसे इस तरह भी समझना चाहिए कि विदेशों में काला धन जमा करनेवालों के नाम उजागर करने को लेकर अब वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कह रहे हैं कि कुछ कानूनी प्रावधानों और संधियों के कारण ऐसा करना संभव नहीं है.

लेकिन राज्यसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर नाम उजागर करने पर जोर देते वक्त उन्हें यह जानकारी नहीं थी! हां, मोदी का अपने मंत्रियों पर मनमोहन से बेहतर नियंत्रण है. इसलिए कि वे उन्हें खुद चुनवाकर लाये हैं. पूरे बहुमत के कारण उनके समक्ष गंठबंधन की मजबूरियां भी नहीं हैं. लेकिन वे ‘कुछ अलग’ कहां कर रहे हैं? 2012 में मनमोहन सरकार द्वारा रेल भाड़े में वृद्धि के प्रयास पर मोदी ने ट्विट किया था-‘संसद से पास कराये बिना भाड़ा बढ़ाना ठीक नहीं. मैंने प्रधानमंत्रीजी को चिट्ठी लिखी है.’ लेकिन अब वे खुद संसद से पास कराये बिना इसे बढ़ा रहे हैं और इसके लिए मनमोहन सरकार की ही आड़ ले रहे हैं. कोई तो पूछे कि पुरानी सरकार के फैसलों को ही आदर्श मानना व अपनाना था तो देश ने नयी सरकार लाने की ‘गलती’ क्यों की?

देश इसलिए भी हार जाता है कि उसकी पूरी तरह अराजनीतिक व विचारहीन हो चुकी राजनीति का कोई नीतिगत विपक्ष बचा ही नहीं है. इसलिए किसी भी डंडे-झंडे की सरकार आये, वह फौरन समाज के सुखासीन वर्ग की सेवा करने लग जाती है, जो रसोईगैस, चीनी और खाद्यान्नों की महंगाई पर तो खूब होहल्ला मचाता है, लेकिन नहीं चाहता कि कोई और उसके ऐश्वर्य में हिस्सा बंटाये. आजादी, लोकतंत्र व चुनाव सबको गरीबों व वंचित तबकों के विरुद्ध अपना हथियार बना लेने वाला यह वर्ग देश को हराने में सरकार की भरपूर मदद करता है.

फिलहाल, मोदी को लेकर जो अंदेशे थे, उन्होंने उनमें कम से कम एक को सही सिद्ध करने की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है. परिवर्तनकामना को ठेंगा दिखाने वाला यह रास्ता समूचे लोकतंत्र को ही विफल करके रख देने की ओर जाता है.

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