सरकार और बजट का फंडा
सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार drsureshkant@gmail.com जिस तरह से हर साल नया साल आता है, उसी तरह से हर साल नया बजट आता है. नया बजट आता है, तो लोग नयी-नयी अटकलें लगाते हैं. उनकी अटकलें नयी होती हैं, डर वही पुराने होते हैं. लोग डरते हैं कि नये बजट के साथ महंगाई नयी हो जायेगी, […]
सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
drsureshkant@gmail.com
जिस तरह से हर साल नया साल आता है, उसी तरह से हर साल नया बजट आता है. नया बजट आता है, तो लोग नयी-नयी अटकलें लगाते हैं. उनकी अटकलें नयी होती हैं, डर वही पुराने होते हैं.
लोग डरते हैं कि नये बजट के साथ महंगाई नयी हो जायेगी, बेरोजगारी नयी हो जायेगी, भ्रष्टाचार नया हो जायेगा और लोगों की कठिनाइयां तथा परेशानियां भी नयी हो जायेंगी. लोग बिना बात नहीं, बल्कि अपने अनुभव की बिना पर डरते हैं. और वैसे भी जो लोग अपने नसीब में सिर्फ डरना लिखवाकर लाये हैं, वे डरेंगे ही. डरना उनका काम है और डराना सरकार का काम, फिर चाहे वह कानून से डराये या बजट से.
लोग अक्सर सोच में पड़ जाते हैं कि सरकार का बजट बनाने का फंडा क्या है? तो एक विज्ञापन के अनुसार, फंडा क्लीयर है. सरकार आम आदमी की भलाई के लिए बजट पेश करती है. जिस बजट में आम आदमी की भलाई न हो, वह बजट कैसा और जो बजट नहीं, उसे सरकार पेश नहीं कर सकती. इसलिए हमें यह मान कर चलना चाहिए कि बजट के नाम पर सरकार जो कुछ भी पेश करेगी, उसमें आम आदमी की भलाई ही छिपी होगी. अब यह आम आदमी का काम है कि उस छिपी भलाई को तलाशे.
वह तलाश नहीं कर पाता, तो इसमें सरकार का क्या दोष? सरकार से यह अपेक्षा करना तो ज्यादती होगी कि वह पहले तो आम आदमी की भलाई को बजट में छिपाये और उसे तलाश कर भी वही दे. और यह उम्मीद करना उससे भी बड़ी ज्यादती होगी कि आम आदमी की भलाई वह बजट में छिपाती ही क्यों है, उसे सीधे-सीधे क्यों नहीं दे देती? क्योंकि फिर उस्तादी ही क्या?
एक चेले ने अपने उस्ताद से मोर पकड़ने का आसान तरीका पूछा. उस्ताद ने बताया कि एक मोमबत्ती, माचिस और रस्सी लो और रात में उस पेड़ पर चढ़ जाओ, जिस पर मोर सोया हो. मोर के पास जाकर मोमबत्ती जलाओ और उसका मोम मोर की आंखों में टपका दो, जिससे वह अंधा हो जायेगा.
फिर उसे रस्सी से बांध कर पकड़ लो. यह सुन कर चेला सोच में पड़ गया, बोला, जो मोर आसानी से अपनी आंखों में मोम टपकवाने दे, क्या उसे बिना इस तामझाम के नहीं पकड़ा जा सकता? उस्ताद ने कहा कि बेटा, पकड़ा तो जा सकता है, पर फिर उस्तादी क्या हुई?
सरकार भी किसी उस्ताद से कम नहीं होती. अक्सर तो वह उस्ताद होने की वजह से ही सरकार होती है. यह सरकार की उस्तादी ही तो है कि वह बजट से उन्हीं खास लोगों को फायदा पहुंचाती है, जो पहले से ही फायदे में होते हैं.
ठीक भी है, जो आम लोग कभी फायदे में नहीं होते, उन्हें फायदा पहुंचाने का फायदा भी क्या? और फिर, जिन्हें हमेशा नुकसान में रहने की आदत है, वे अगर नुकसान में ही बने रहें, तो किसी का कोई नुकसान नहीं हो सकता. लेकिन जिन्हें हमेशा फायदे में रहने की आदत है, उन्हें जरा भी नुकसान हो जाये, तो वे परेशान हो जाते हैं. अब जो परेशान नहीं हैं, उन्हें बेमतलब परेशान क्यों किया जाए- यही सरकारी बजट का फंडा है.