वैश्विक आर्थिकी एवं भारत
पिछले कुछ समय से विश्व के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री और वित्तीय विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि 2019-20 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्थाएं संकट के घेरे में आ सकती हैं. संरक्षणवाद, व्यापार युद्ध, राजनीतिक अस्थिरता और जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक परिणाम धीरे-धीरे, लेकिन निरंतर सामने आ रहे हैं. चीन में मंदी, दीर्घकालिक ब्याज दरों में वृद्धि […]
पिछले कुछ समय से विश्व के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री और वित्तीय विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि 2019-20 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्थाएं संकट के घेरे में आ सकती हैं. संरक्षणवाद, व्यापार युद्ध, राजनीतिक अस्थिरता और जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक परिणाम धीरे-धीरे, लेकिन निरंतर सामने आ रहे हैं.
चीन में मंदी, दीर्घकालिक ब्याज दरों में वृद्धि और केंद्रीय बैंकों की स्वायत्तता को परे रखकर लोकलुभावन आर्थिक नीतियों जैसे कारक वैश्विक स्तर पर विकास की गति को कम कर सकते हैं. भारत को देखें, तो दिसंबर के आंकड़े इंगित कर रहे हैं कि आर्थिक गतिविधियों में शिथिलता है.
इससे नवंबर की बढ़त से पैदा हुआ उत्साह मंद पड़ा है. निर्यात में ठहराव के साथ घरेलू बाजार भी ढीला पड़ा है. जानकार कहते हैं कि मांग बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था में वित्तीय और मौद्रिक सहायता की जरूरत है. कृषि संकट और बेरोजगारी के समाधान तथा सामाजिक कल्याण योजनाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर की मजबूती में निवेश के दबाव के साथ आर्थिक मोर्चे पर धन उपलब्ध कराने की चुनौती भी सरकार के सामने है.
चुनावी साल होने के कारण बजट में सुधारों पर ध्यान देने और लोकलुभावन कार्यक्रमों पर खर्च करने के बीच संतुलन साधना भी वित्त मंत्री के लिए मुश्किल काम है. किसानों की कर्ज माफी, खाली पदों को भरने की तेज कवायद, सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्ते में हालिया बढ़ोतरी के लिए आवंटन, न्यूनतम आमदनी की गारंटी पर चर्चा, ग्रामीण भारत में आमदनी बढ़ाने के उपाय आदि ऐसे बिंदु हैं, जिनका असर नीति-निर्धारण की प्रक्रिया पर पड़ सकता है.
अंतरराष्ट्रीय बाजार और निवेशकों का भरोसा बनाये रखने के लिए वित्तीय घाटे को तीन फीसदी के आसपास रखने की चुनौती भी है. बीते साढ़े चार सालों में वैश्विक और घरेलू मोर्चे पर अनेक मुश्किलों का सामना करते हुए मोदी सरकार ने सुधारों की गति को न सिर्फ तेज किया है, बल्कि साहसी फैसलों से अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने और वित्तीय प्रबंधन को सुचारू रूप देने का उल्लेखनीय प्रयास किया है. पिछले 15 सालों में मुद्रास्फीति और कुल वित्तीय घाटे की दरें सबसे निचले स्तर पर हैं.
जीडीपी की दर 7.5 फीसदी के आसपास है और उथल-पुथल से गुजर रहीं विकसित एवं उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भारत फिलहाल सबसे आगे है. इन आंकड़ों के साथ इस सरकार की विरासत बुनियादी आर्थिक आधारों पर बहुत ठोस होगी और पिछली सरकार की तुलना में बहुत बेहतर भी होगी. यह भी कहा जाना चाहिए कि विकास के शानदार मानकों के बावजूद आबादी के बड़े हिस्से तक इनके फायदे नहीं पहुंच सके हैं.
ऐसे में अंतरराष्ट्रीय हलचलें हमारी अर्थव्यवस्था को अस्थिर भी कर सकती हैं, पर यदि वैश्विक संतुलन में स्थिरता आती है, तो उसका ज्यादा फायदा भी भारत को होगा. अब देखना यह है कि नीतिगत पहलों पर ध्यान देते हुए विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्तर पर सरकार की दिशा क्या होगी.