बजट एवं वित्तीय घाटा

केंद्रीय बजट में 2008 तक बजट घाटे को तीन फीसदी लाने का लक्ष्य अभी तक पूरा नहीं हो सका है. मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालने के समय इसके लिए 2018 की सीमा तय की थी. अंतरिम बजट में प्रभारी मंत्री पीयूष गोयल ने 2019 और 2020 के वित्त वर्षों में यह घाटा 3.4 फीसदी तक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 5, 2019 5:49 AM

केंद्रीय बजट में 2008 तक बजट घाटे को तीन फीसदी लाने का लक्ष्य अभी तक पूरा नहीं हो सका है. मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालने के समय इसके लिए 2018 की सीमा तय की थी. अंतरिम बजट में प्रभारी मंत्री पीयूष गोयल ने 2019 और 2020 के वित्त वर्षों में यह घाटा 3.4 फीसदी तक रहने का अनुमान व्यक्त किया है. आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का मानना है कि 2019-20 में यह 3.3 फीसदी भी रह सकता है.

सरकार 2020-21 में इसे तीन फीसदी तक लाने को लेकर भी आश्वस्त है. लेकिन, अनेक जानकारों और वित्तीय गतिविधियों पर नजर रखनेवाली संस्थाओं का मानना है कि यह मुश्किल है. सरकार को मिलनेवाले राजस्व और उसके खर्च के अंतर को बजट या वित्तीय घाटा कहा जाता है. इससे यह अनुमान भी मिलता है कि सरकार को कितना कर्ज लेने की जरूरत है. इस संदर्भ में दो तथ्य चिंताजनक हैं.

महालेखा परीक्षक की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्तीय घाटे को कम दिखाने के लिए सरकार ने बजट प्रस्तावों से बाहर जाकर कर्ज उठाया है. सरकार पर भारतीय खाद्य निगम का ही एक लाख करोड़ रुपये से अधिक बकाया है. सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उधार लेने की जरूरत का आकलन सकल घरेलू उत्पादन के आठ फीसदी से भी ज्यादा है.

वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन कानून, 2003 के तहत कुल कर्ज और कुल घरेलू उत्पादन के अनुपात को 2024-25 तक 40 फीसदी तक लाना है. वर्ष 2017-18 में यह 50.1 फीसदी था. पिछले बजट में इस आंकड़े को 2018-19 में 48.8 फीसदी, 2019-20 में 46.7 फीसदी और 2020-21 में 44.6 फीसदी करने का लक्ष्य रखा गया था. इन वर्षों में बजट घाटे को क्रमशः 3.3, 3.1 और तीन फीसदी तक लाने का इरादा जताया गया था.

निश्चित रूप से वित्तीय अनुशासन एवं पूंजी निर्माण पर जोर देकर ही इन लक्ष्यों को पाया जा सकता है, लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि जानकार जिन कल्याणकारी योजनाओं को लोकलुभावन या चुनावी राजनीति से प्रेरित कहते हैं, वे देश की बहुत बड़ी आबादी की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर उसे विकास की राह पर लाने के लिए बहुत जरूरी हैं. मनरेगा के लिए आवंटन में बढ़ोतरी, छोटे किसानों को छह हजार रुपये सालाना की सहायता तथा असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए पेंशन योजना जैसी पहलों को महज खर्च के रूप में देखना ठीक नहीं है.

ये करोड़ों वंचितों को आत्मविश्वास देने और उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने की दिशा में ठोस निवेश के प्रयास हैं. विशेषज्ञों की यह आशंका सही हो सकती है कि बजट में उल्लिखित राजस्व वसूली के लक्ष्य पूरे नहीं होंगे.

इससे मुद्रास्फीति और घाटे में वृद्धि हो सकती है. पर अभी मुद्रास्फीति बीते सालों की तुलना में कम है और उसमें मामूली बढ़त से अर्थव्यवस्था पर बहुत असर नहीं होगा. इसके बरक्स निम्न आयवर्गीय आबादी के हाथ में नगदी और बचत से मांग बढ़ेगी, जो कि उत्पादन और बाजार के लिए राहत की बात है.

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