11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

बंगाल की खाड़ी से बवंडर

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com मूल मंशा चाहे जो रही हो, केंद्र से आये सीबीआई के जत्थे का यकायक कोलकाता के पुलिस कमिश्नर के घर पर नाटकीय धावा बोल देना बंगाल की खाड़ी से उठा एक बीहड़ बवंडर दिख रहा है. इसने देखते-देखते सारे देश को गिरफ्त में लेकर समूचे विपक्ष […]

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
मूल मंशा चाहे जो रही हो, केंद्र से आये सीबीआई के जत्थे का यकायक कोलकाता के पुलिस कमिश्नर के घर पर नाटकीय धावा बोल देना बंगाल की खाड़ी से उठा एक बीहड़ बवंडर दिख रहा है. इसने देखते-देखते सारे देश को गिरफ्त में लेकर समूचे विपक्ष को ममता के पक्ष और केंद्र के खिलाफ लामबंद कर दिया है.
यदि पता होता कि पांच साल पुराने मामले की जांच की बासी कढ़ी में यकायक उबाल लाकर सीबीआई मुखिया नागेश्वर राव अपने कार्यकाल के आखिरी दिन जाते-जाते ऐसी विपक्षी एकजुटता का सूत्रपात करते जायेंगे, तो देश का एक बड़ा वर्ग नियुक्ति के क्षणों से विवादित रहे अल्पकालिक सीबीआई प्रमुख राव के चरण पखार कर चरणोदक पान कर लेता.
यह सही है कि सीबीआई 2014 के तुरंत बाद से बंगाल में हुए चिटफंड घोटाले की पड़ताल कर रही थी. लेकिन, एक संघीय गणतंत्र में किसी भी राज्य के खिलाफ केंद्र द्वारा कोई संगीन कार्रवाई करने के भी कुछ नियम-कानून होते हैं.
आम चुनाव से कुछ महीने पहले यकायक बिना बंगाल के उच्च न्यायालय को सूचित किये, बिना वारंट या पूर्व सूचना के पुलिस प्रमुख के घर की घेरेबंदी की ऐसी क्या हड़बड़ी थी?
और क्या वजह थी कि इन चार सालों के बीच बिना कारण बताये तृणमूल तज कर भाजपा के चरण गह चुके इसी घोटाले के दो कथित दोषियों को चुपचाप सीबीआई की फेहरिस्त से हटा दिया गया? अगर गत चार सालों में राज्य के पुलिस प्रमुख के दो बार बुलावे पर नहीं गये थी, तो अब क्या वजह थी कि संस्था का धीरज इस तरह टूट गया कि सीधे उनकी मुश्कें बंधवाकर दिल्ली लाने की ठान ली गयी? ममता बनर्जी ने इन तमाम चूकों की अनदेखी नहीं की और सीधे राज्य पुलिस बुलाकर सीबीआई के दस्ते को (कुछ देर को ही सही) राज्य पुलिस की गाड़ियों से थाने भेज खुद पुलिस प्रमुख के घर के बाहर धरने पर बैठ गयीं.
सतत उत्तेजित मीडिया को मानो दौरा पड़ गया और बजटीय विश्लेषणों या प्रधानमंत्री के डल झील पर नौका-विहार या लद्दाखी टोपी पहने उनकी नयनाभिराम छवियों को परे करके पलक झपकते ममता दीदी हर चैनल पर छा गयीं. सोशल मीडिया की ताकत से वाकिफ दीदी ने अपने आधिकारिक ट्विटर पेज पर इस छापे के मुख्य लक्ष्य कोलकाता के पुलिस कमिश्नर की प्रशंसा करते हुए तत्काल यह भी दर्ज किया कि यह छापा बंगाली स्वायत्तता के खिलाफ भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा लिया जा रहा निकृष्टतम राजनीतिक प्रतिशोध है.
केंद्र जो अपने अधीन पुलिस बलों की मदद से बंगाल की अस्मिता और उसके लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वायत्तता को बरबाद करने पर आमादा है, उसके खिलाफ उनका यह धरना एक स्वतंत्रता आंदोलन है! दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने तुरंत ममता से सहानुभूति जताते हुए उनके साथ खड़े रहने का इरादा भी व्यक्त कर दिया. फिर तो झड़ी लग गयी और समूचा विपक्ष ममता के साथ होने की घोषणा करने लगा.
अब जब बात तूल पकड़ चुकी है, तब विद्वान लोग पोथे बांच रहे हैं कि केंद्र द्वारा राज्यों के शासन में सीधे हस्तक्षेप के अधिकार कितने और किस तरह के हैं?
सीबीआई के बेचारे नवनिर्वाचित मुखिया को अभी इस हड़बोंग के बीच पदभार संभालना है, जबकि कोलकाता की गलियों में तृणमूल और भाजपा के कार्यकर्ताओं के बीच झड़प होने की आशंका बढ़ रही है.
यह सारा तनाव किसी बारीक वैधानिक मतभेद का नतीजा नहीं है. यह इसलिए इस वीभत्स रूप में आन खड़ा हुआ है कि पिछले साढ़े चार सालों में केंद्र ने साम-दाम-दंड-भेद से तमाम तरह के भेदभाव गहराते हुए कश्मीर से कन्याकुमारी तक विपक्ष शासित राज्यों को एक ऐसी अंधी गली में ला खड़ा किया है, जहां उनको केंद्र सरकार से न्याय की कोई उम्मीद नहीं है.
विपक्षियों को आशंका है कि उनके खिलाफ केंद्र की बदला लेने की प्रवृत्ति हाल में पांच राज्यों के भाजपा के हाथों से फिसलने से जिस तरह घनीभूत होती जा रही है, उसमें अक्सर हिंसा की कोई छोटी चिंगारी भी देश में आग लगा सकती है.
साल 1905 के बंग-भंग प्रस्ताव की ही तरह ममता इस कदम को समूचे बंगाल की अस्मिता का अपमान मनवा चुकी हैं, इसलिये वहां एनडीए की गिरी हुई इज्जत की त्वरित बहाली नामुमकिन है. बंगाल में अभी अगर राष्ट्रपति शासन लागू हो भी गया, तो भी इसकी संभावना नहीं कि मोदीजी बंगेश्वर बन सकेंगे.
बंगाली समाज बंग-भंग आंदोलन के दिनों से ही उत्कट रूप धरता आया है. अगर वह फिर सतह पर आया, तो उसको राज्यपाल किस हद तक थाम पायेंगे, कहना कठिन है.
बहरहाल, प्रचार युद्ध का पहला राउंड ममता जीत गयी हैं और दमन, जुल्म और संविधान की कब्र खोदने के जो बेबाक आरोप उन्होंने सीधे केंद्र सरकार के मुखिया तथा उनकी सलाहकार टोली पर लगा दिये हैं, उन्होंने दीदी की चिरविद्रोहिणी बंगहृदयहारिणी छवि उभारने में भारी मदद पहुंचायी है.
खबर आयी कि सुप्रीम कोर्ट तक हांफती-कांपती भागती गयी सीबीआई की ममता दीदी के खिलाफ अदालती अपमान की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय सोमवार की बजाय मंगलवार की सुबह ही विचार करेगा. उत्तर प्रदेश से अखिलेश यादव ने उनके साथ एकजुटता प्रदर्शन के लिए अपना प्रतिनिधि भेजा है. अचरज नहीं कि कतिपय और दल भी अपने-अपने प्रतिनिधि इस नये बंग आंदोलन के पक्ष में भेज दें.
इस घटनाक्रम से साफ होता जा रहा है कि संविधान भले पुकार-पुकार कर अखिल भारतीय दलों की मांग करता हो, दमदार भारतीय पार्टियां प्रांतीय बनती चली गयी हैं. कहीं अकाली, कहीं तृणमूल, कहीं बीजद, कहीं द्रमुक या तेदेपा. यह जरूरी भी है. भारत का लोकतंत्र बुनियादी तौर से बदलने की पहली शर्त यही है कि भाजपा या कांग्रेस के अलावा कुछ ताकतवर प्रांतीय दल भी इस देश की जनता के दमदार स्थानीय प्रतिनिधि बनकर उभरें.
भाजपा के कुछ नादान प्रवक्ता इतना उछल रहे हैं, मानो दीदी को और उनके पुलिस प्रमुख सहित कई विधायकों को वे जेल भिजवा कर ही दम लेंगे.
संघीय लोकतंत्र एक फटे हुए फुटबॉल की तरह मैदान में लथेड़ा जाते देखकर भी वे प्रसन्न हैं. जाहिर है, उनको लोकतंत्र के महत्वपूर्ण चुनावी खेल के जिंदा रहने की अब कोई फिक्र नहीं है. यह खेल उनके लिए और केंद्रीय नेतृत्व तथा हिंदुत्व की कई उन्मादी एवं रक्तपिपासु टोलियों के लिए मानो एक युद्ध बन चुका है और युद्ध के कोई नियम नहीं होते. हो सकता है कि उनकी विचारधारा जीत जाये, लेकिन भगवान के लिए वे गणतंत्र की कविता को वैदिक स्वरों में गाना तो छोड़ ही दें.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें