पर्याप्त नहीं यह रक्षा बजट
सुशांत सरीन रक्षा विशेषज्ञ delhi@prabhatkhabar.in पिछले कई साल से बजट में हर बार रक्षा बजट के सबसे ज्यादा होने की बात तो आती है, लेकिन यह आकलन भी सामने आता है कि रक्षा के लिए वह बजट नाकाफी होता है. पिछले कई वर्षों से ऐसा होता चला आ रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के […]
सुशांत सरीन
रक्षा विशेषज्ञ
delhi@prabhatkhabar.in
पिछले कई साल से बजट में हर बार रक्षा बजट के सबसे ज्यादा होने की बात तो आती है, लेकिन यह आकलन भी सामने आता है कि रक्षा के लिए वह बजट नाकाफी होता है. पिछले कई वर्षों से ऐसा होता चला आ रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में सबसे ज्यादा रक्षा पर खर्च हुआ था, लेकिन उसके बाद की सरकारों में रक्षा बजट जरूरत से कम ही रहा है.
यह बात सही नहीं है कि इस बार का रक्षा बजट अब तक का सबसे बड़ा है, बल्कि हर साल का रक्षा बजट अपने पिछले साल के मुकाबले कुछ ज्यादा ही रहता है.
यह तो एक परंपरा है. अगले साल का बजट इस बार से भी ज्यादा हो जायेगा. इसमें कोई चौंकानेवाली बात नहीं है. हालांकि, इस बार रक्षा बजट पहली दफा तीन लाख करोड़ रुपये के पार भले ही चला गया हो, लेकिन फिर भी यह नाकाफी है. क्योंकि सवाल बजट के बड़ा होने का नहीं है, बल्कि पर्याप्त होने का है.
रक्षा बजट के कुछ पैमाने होते हैं. एक तो यह कि राष्ट्रीय जीडीपी का वह कितना प्रतिशत है. पिछले 12-15 साल से यह प्रतिशत निरंतर गिरता जा रहा है.
अमेरिका अपनी जीडीपी का छह प्रतिशत रक्षा पर खर्च करता है, तो पाकिस्तान भी ढाई से तीन प्रतिशत खर्च करता है. चीन भी लगभग इतना ही खर्च करता है. वहीं भारत रक्षा बजट कम करते-करते अब 1.6 प्रतिशत खर्च पर आ गया है. यानी हमारी जीडीपी तो बढ़ रही है, लेकिन उस हिसाब से रक्षा बजट कम हो रहा है. इस एतबार से देखें, तो अब तक का यह सबसे कम रक्षा बजट माना जायेगा.
हालांकि, इसका कोई पैमाना नहीं है कि जीडीपी के आकार में रक्षा बजट कितना होना चाहिए, तो कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह तीन प्रतिशत से कम नहीं होना चाहिए. जाहिर है, यह देखना होता है कि रक्षा संबंधी चुनौतियां कितनी बड़ी या छोटी हैं. भारत की चुनौतियाें के हिसाब से मौजूदा रक्षा बजट पर्याप्त नहीं है. यह बेहद अफसोस की बात है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत ने रक्षा साजो-सामान बनाने के लिए अपनी कोई बड़ी व्यवस्था नहीं बनायी है, इसलिए भारत को हथियार और साजो-सामान निर्यात करना पड़ता है.
साजो-सामान निर्यात करने के इतने सख्त और लंबी प्रक्रिया होती है कि भारतीय सेना के पास सामान आते-आते उसकी तकनीक पुरानी पड़ जाती है. पहले सरकार यह तय करती है कि सेना को क्या चाहिए, लेकिन उसका निर्यात करने के लिए जब ऑर्डरिंग-टेंडरिंग होती है, तो यह प्रक्रिया बहुत लंबी यानी कुछ साल तक खिंचती चली जाती है. इसका बेहतरीन उदाहरण राफेल सौदा है, जिसे खरीदने का मामला तकरीबन डेढ़ दशक पुराना है.
हमारे पड़ोस में जिस तरह की अस्थिरता का माहौल बना हुआ है, उसमें हमारी चुनौतियां बहुत ज्यादा हैं. इन चुनौतियों के लिए हमारे खर्च भी ज्यादा होने चाहिए, जो कि नहीं हैं. हर बजट में सरकार एक लाइन डाल देती है कि अभी इतना रक्षा बजट है, जरूरी पड़ी तो इसे बढ़ाया भी जा सकता है.
इसका मतलब साफ है कि सरकार को पता है कि रक्षा बजट को बढ़ाये जाने की जरूरत है, लेकिन वह बढ़ायेगी नहीं. सरकार यह कब समझेगी कि रक्षा साजो-सामान के लिए बाद में बजट बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि यह राशन बजट नहीं है.
मान लीजिए कि आपके घर में आटा या चावल कम हो जाये, तो आप फौरन बोलेंगे कि अभी बाजार से लेकर आते हैं, तब खाना बनेगा, लेकिन जरा सोचिए, अगर हमारे दुश्मन यलगार कर दें और हमारे पास लड़ने के लिए हथियार और साजाे-सामान नहीं होंगे, तो दुश्मन से क्या आप यह कहेंगे कि भई रुको अभी हम हथियार खदी कर आते हैं, तब लड़ेंगे?
सरकार को यह क्यों नहीं समझ में आता कि उसे अपना घर सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में हथियार और साजो-सामान होना चाहिए!
प्रतिदिन आधुनिक होते समय में जिस तरह की तकनीकें विकसित हो रही हैं, वे एक तरफ चुनौतियों को बढ़ा रही हैं, तो दूसरी तरफ सैन्य साजो-सामान के अत्याधुनिक होने की मांग भी कर रही हैं.
दरअसल, एक खास तरह का गलत ट्रेंड हमने देखा है कि हमारी कोशिश यह रही है कि सैनिकों की भर्तियां करते रहो, यानी ज्यादा बड़ी सेना हो, लेकिन यह सोच नहीं रही है कि इतनी बड़ी सेना आखिर लड़ेगी कैसे, जब उसके पास आधुनिक हथियार पर्याप्त मात्रा में नहीं होंगे? भारतीय सेना में बहुत सारे उपकरण वर्षों पुराने हैं और इसे आधुनिक उपकरण मुहैया कराना सख्त जरूरी है. इसके लिए हमें अपनी जीडीपी का ढाई से तीन प्रतिशत खर्च करना होगा, जो कि अभी संभव नहीं दिख रहा है. रक्षा बजट को लेकर फैसले लेनेवाले लोगों में नीतियों का अभाव दिखता है.
अभी जो रक्षा बजट पास हुआ है, एक आकलन के मुताबिक, इसका करीब अस्सी प्रतिशत तो सैन्य उपकरणों की देख-रेख, सैनिकों की तनख्वाह और रोज के जरूरी खर्चों व ट्रेनिंग आदि में ही खत्म हो जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय सैनिक जोशीले हैं, लेकिन लड़ाई के मैदान में सिर्फ जोश से नहीं लड़ा जा सकता, उसके लिए हथियार भी चाहिए.
सैनिकों का मनोबल आधुनिक हथियारों से बढ़ता है. सेना पर ज्यादा खर्च हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी जरूरी है, क्योंकि अगर आधुनिक हथियारों से लैस सीमा पर खड़ी सेना से देश के लोग सुरक्षित महसूस करते हैं, तो वे देश के भीतर ज्यादा जोश से काम करते हैं और देश तरक्की की राह पर चल पड़ता है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)