कश्मीर में उभरती कठोर सच्चाई
।।शुजात बुखारी।। (वरिष्ठ पत्रकार) पिछले साल जब मैंने विभिन्न विषयों में स्नातक की पढ़ाई किये हुए कश्मीरी युवाओं के ‘जेहाद’ में शामिल होने और उनके जनाजों में लोगों की भारी भीड़ उमड़ने के बारे में लिखा था, तो अनेक ‘विश्लेषकों’ ने इसे ‘अतिशयोक्ति मात्र’ कहा था. लेकिन गत सोमवार को सोपोर में एक युवक की […]
।।शुजात बुखारी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
पिछले साल जब मैंने विभिन्न विषयों में स्नातक की पढ़ाई किये हुए कश्मीरी युवाओं के ‘जेहाद’ में शामिल होने और उनके जनाजों में लोगों की भारी भीड़ उमड़ने के बारे में लिखा था, तो अनेक ‘विश्लेषकों’ ने इसे ‘अतिशयोक्ति मात्र’ कहा था. लेकिन गत सोमवार को सोपोर में एक युवक की हत्या इस बात का प्रमाण है कि कश्मीरी समाज, खासकर युवा, किस तरह खुद को उग्रवाद के नये चरण के साथ जोड़कर देखते हैं. मृतक युवा अरशद अहमद बिजली-कटौती के विरोध में या किसी प्रखंड या जिले की मांग को लेकर होनेवाले किसी प्रदर्शन में शामिल नहीं था, बल्कि वह उस समूह का हिस्सा था, जो उस दिन सुरक्षाबलों के साथ हुए मुठभेड़ में एक स्थानीय उग्रवादी के मारे जाने का विरोध कर रहा था.
कभी ‘उग्रवाद की राजधानी’ कहे जाने वाले सोपोर ने घाटी में मौजूद असंतोष की हमेशा अगुवाई की है. शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में विरोध के कारण मुसलिम कॉन्फ्रेंस से नेशनल कॉन्फ्रेंस बने दल की पहली सभा सोपोर में ही की थी. यह शहर तब से प्रतिरोध का प्रतीक बना हुआ है. इसकी एक बानगी यहां से नेशनल कॉन्फ्रेंस के खिलाफ हुर्रियत के नेता सैयद अली गिलानी की विधानसभा में तीन बार जीत है. जब 1989 में सशस्त्र विद्रोह शुरू हुआ, तब सोपोर इसमें सबसे आगे था. उस विद्रोह में शामिल एक मजबूत समूह हिज्बुल मुजाहिद्दीन के आधार-संगठन तहरीके-आजादी इसलामी का जन्म यहीं हुआ था. यहां पर मतदान का प्रतिशत भी लगभग शून्य रहा है. इन सब कारणों से सोपोर के विकास को भी नजरअंदाज किया गया.
सोमवार की घटना न सिर्फ इस शहर की ऐतिहासिक यादों को ताजा करती है, बल्कि इस बात को भी रेखांकित करती है कि फिर से युवा अपने राजनीतिक अधिकारों को पाने के लिए हिंसा का सहारा लेने लगे हैं. कई लोग कह सकते हैं कि ये युवा भ्रमित हैं या पैसे के लिए यह सब कर रहे हैं. लेकिन, सच यह है कि कई युवा ऐसे हैं, जो प्रतिबद्धता के साथ यह खतरनाक रास्ता चुन रहे हैं. कश्मीर में सेना के अभियान के प्रमुख के रूप में काम कर अब विदा हो रहे लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह के अनुसार, वर्ष 2013 से अब तक घाटी में मारे गये उग्रवादियों की संख्या 102 है. किसी भी आकलन और विश्लेषण से यह संख्या बहुत बड़ी है, जब सरकार यह दावा कर रही है कि घाटी में आतंकी गतिविधियों में कमी आ रही है और ये बस बचे-खुचे उग्रवादी हैं.
अगर आधिकारिक सूत्रों पर भरोसा करें, तो उग्रवादियों में स्थानीय लड़कों की संख्या 50 फीसदी तक हो चुकी है. उग्रवादी संगठनों को स्थानीय समर्थन भी मिलता है. सोपोर क्षेत्र में होनेवाली मुठभेड़ों की संख्या से भी यह संकेत मिलता है कि ‘विदेशी लड़ाकों के प्रभुत्व’ के रुझान अब बदल रहे हैं. न सिर्फ अधिक युवा प्रतिरोध के लिए उग्रवाद की राह अपना रहे हैं, बल्कि उनके परिवारजन और आम लोग खुलेआम उनका गौरव-गान कर रहे हैं. विरोधाभासों से भरे कश्मीरी समाज में, वे लोग भी हैं, जो पंक्तिबद्ध होकर मतदान करते हैं और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों की सभाओं में भाग लेते हैं, लेकिन यह कठोर सच्चाई भी मौजूद है कि उन्होंने उग्रवादियों से अपना ‘संबंध-विच्छेद’ नहीं किया है. जब मृतक उग्रवादी का शव कब्रिस्तान की ओर ले जाया जाता है, तब आजादी-समर्थक नारे लगाते हुए हजारों लोगों और शादी के पारंपरिक गीत गाकर मृतक को श्रद्धांजलि देती औरतों को देखा जा सकता है. पिछले सप्ताह त्रल में मारे गये तीन उग्रवादियों के परिजनों ने पत्रकारों को बताया कि उन्हें अपने बच्चों पर गर्व है.
हालांकि, इस परिघटना का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है, लेकिन इससे समाज में हो रहे बदलाव के संकेत जरूर मिलते हैं. 2010 के विरोध-प्रदर्शनों, जिसमें 120 नागरिक मारे गये थे, के बाद ये रुझान दिखने शुरू हुए हैं. इस बदलती स्थिति के पीछे राजनीतिक पहलों का अभाव और श्रीनगर व दिल्ली की सरकारों द्वारा लोगों की आकांक्षाओं की निरंतर अवहेलना है.
कश्मीर में सशस्त्र संघर्ष को हमेशा ही पढ़े-लिखे लोगों का समर्थन मिला है, चाहे वह 1960 के दशक का अल-फतह हो या 1989 में शुरू हुआ जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का विद्रोह हो. युवाओं द्वारा हिंसा की राह पकड़ने के पीछे सिर्फ उग्र विचारों से उनका प्रभावित होना नहीं है, बल्कि इसके लिए उन्हें समाज की ‘अनुमति’ भी हासिल है. इसका सीधा संबंध घाटी की जमीनी हकीकत से है. राजनीतिक लक्ष्यों के लिए हिंसा का रास्ता दुनियाभर में भले ही नकार दिया गया है, पर कश्मीर में इस प्रवृत्ति के उभार को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.
यह स्थिति यही बताती है कि शांति के लिए प्रयास सही और समुचित तरीके से नहीं हुए. हिंसा की ओर युवाओं के बढ़ते झुकाव को रोकने के लिए बातचीत और मेल-मिलाप की कोशिशें तेज होनी चाहिए.