पर्यावरण दिवस पर जरा सोचें
।। देविंदर शर्मा ।।(कृषि मामलों के जानकार)– इस साल के पर्यावरण दिवस का उपयोग हमें जीएम फसलों के प्रति जागरूकता फैलाने में करना चाहिए. यह तभी होगा जब हम सभी पहले सोचें, तब खायें और अंत में भोजन को बचायें. – विश्व पर्यावरण दिवस से कुछ ही दिन पहले जापान ने अमेरिका से सफेद गेहूं […]
।। देविंदर शर्मा ।।
(कृषि मामलों के जानकार)
– इस साल के पर्यावरण दिवस का उपयोग हमें जीएम फसलों के प्रति जागरूकता फैलाने में करना चाहिए. यह तभी होगा जब हम सभी पहले सोचें, तब खायें और अंत में भोजन को बचायें. –
विश्व पर्यावरण दिवस से कुछ ही दिन पहले जापान ने अमेरिका से सफेद गेहूं के आयात को रद्द कर दिया. इससे सफेद गेहूं के खतरे को लेकर वैश्विक स्तर पर बहस होने लगी. साथ में यूरोपीय संघ ने भी आयातित गेहूं की जांच के लिए सख्त कदम उठाने की घोषणा कर दी और चीन तथा फिलीपींस ने भी इस पर कड़ी नजर रखने की बात कही.
इसी दौरान दक्षिण कोरिया ने भी जापान की तरह अमेरिकी गेहूं के आयात पर रोक लगा दी. जापान ने अमेरिका से गेहूं आयात पर रोक का फैसला अमेरिकी कृषि विभाग द्वारा ओरेगांव में बिना इजाजतवाले जेनेटिक गेहूं के पौधों का पता लगाये जाने की जांच के बाद लिया.
इस खास किस्म के गेहूं के पौधे का विकास कृषि क्षेत्र की बड़ी कंपनी मोंसेंटो कर रही थी. यह काम 2004 में फील्ड ट्रायल पूरा करने से पहले बंद कर दिया गया था. फील्ड ट्रायल रोके जाने के नौ साल बाद रहस्यपूर्ण जीएम गेहूं के पौधे की मौजूदगी पर वैश्विक स्तर पर चिंता जाहिर की जा रही है.
इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस की थीम है थिंक-ईट-सेव (सोचो-खाओ-बचाओ). जीएम फसलों के दुष्प्रभाव से प्रमुख भोजन व अन्य कृषि उत्पादों को बचाने के लिए इससे बेहतर थीम और कुछ नहीं हो सकती है. अब तक के नियम और बायो सेफ्टी कानून खाद्य पदार्थो को दूषित होने से बचाने में सक्षम नहीं रहे हैं. यूएसडीए के मुताबिक अमेरिका में ही 2003 से 2007 के दौरान इसके उल्लंघन के 712 मामले सामने आये, जिनमें अवैध फसलों की बुआई के 98 मामले शामिल हैं.
इसलिए यह समय सबसे पहले सोचने का है. अधिक उत्पादन, उर्वरक की कम खपत, भुखमरी को रोकने और कुपोषण दूर करने के दावों के आधार पर जीएम फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, लेकिन इन दावों पर जीएम फसल खरे नहीं उतरे हैं.
विश्व में ऐसा कोई जीएम फसल नहीं है, जिससे उत्पादन बढ़ा हो, रासायनों की खपत में कमी आयी हो और पर्यावरण पहले की तुलना में स्वच्छ हुआ हो. वाशिंगटन स्थित यूनियन ऑफ कंसर्ड साइंटिस्ट के वैज्ञानिक डाग गुरियन शेरमन के मुताबिक अमेरिका में 1996 में जीएम फसलों का उत्पादन शुरू होने के बाद से रासायनों की खपत में 183 मिलियन किलोग्राम की बढ़ोत्तरी हुई है.
भारत की कहानी भी इससे अलग नहीं है. भारत में जीएम फसल के रूप में सिर्फ बीटी कॉटन उपजाया जा रहा है. एक अनुमान के अनुसार भारत में कुल कीटनाशकों में से करीब 50 फीसदी कॉटन के उत्पादन में प्रयोग हो रहा है. उम्मीद थी कि बीटी कॉटन अपनाने के बाद इसके उपयोग में व्यापक स्तर पर कमी आयेगी, पर नागपुर स्थित सेंट्रल इंस्टीटय़ूट ऑफ कॉटन रिसर्च के अध्ययन के मुताबिक 2005 में कीटनाशकों पर 649 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जो 2010 में बढ़ कर 880 करोड़ रुपये हो गया, जबकि इस वर्ष भारत में कुल कॉटन की खेती में बीटी कॉटन की हिस्सेदारी करीब 90 फीसदी थी.
भारत में भी जीएम फसलों के रिसर्च ट्रायल में नियमों की बड़े पैमाने पर अनेदखी हुई है. कुछ साल पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के अधिकारियों को पूसा में मक्का के जीएम फसलों को उखाड़ने का आदेश दिया था. नीतीश कुमार के विरोध जताने के बाद वन एवं पर्यावरण मंत्रलय ने नीतियों में बदलाव करते हुए स्पष्ट कर दिया कि राज्य सरकारों की सहमति के बिना किसी भी जीएम फसल के ट्रायल की इजाजत नहीं दी जायेगी. उसके बाद से सात राज्यों- केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िशा और राजस्थान- ने जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल पर रोक लगा दी है.
इस साल पर्यावरण दिवस से जुड़ा दूसरा विषय है ईट (खाओ). जो खाद्य पदार्थ खाने के लिए उपलब्ध कराये जाते हैं, वे मिलावटी व खतरनाक कीटनाशकों से भरे हैं. मानव स्वास्थ्य के लिहाज से जीएम फसलें गंभीर चिंता का विषय हैं. उपभोक्ता अब सिर्फ इस बात से आश्वस्त नहीं हो सकता कि इन्हें फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन और फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी से मंजूरी प्राप्त है. इस बात के लिए भी व्यापक पैमाने पर जागरूकता फैलाने की जरूरत है, कि लोग जो खा रहे हैं उस पर वे खुद नियंत्रण रख सकें.
देश में बीटी बैगन के व्यापारीकरण के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध के कारण जीएम फसलों के शोध पर रोक लगी. यह सिविल सोसाइटी के सदस्यों द्वारा चलाये गये आंदोलन के कारण हो पाया. अगर इसे मंजूरी मिल जाती, तो यह भारत का पहला जीएम खाद्य फसल होता. बीते अप्रैल महीने में संसद में पेश बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी बिल में ऐसे अधिकारों को वापस लेने के प्रावधान हैं. इसे आरटीआइ के दायरे से बाहर रखने और कुछ अन्य प्रावधान इसमें अदालतों के हस्तक्षेप पर रोक लगाते हैं. इससे जीएम उद्योग को अपने विवादित उत्पादों के व्यापारीकरण को तेज करने में मदद मिलेगी. इसलिए इस पर्यावरण दिवस के मौके पर यह जरूरी हो गया है कि हम ऐसे कानूनों की वैधता पर सवाल उठाएं.
कई अध्ययनों से यह बात सामने आयी है कि जीएम फसलों का मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और बायो डायवर्सिटी पर प्रतिकूल असर पड़ता है. हाल ही में जाने-माने फ्रांसीसी वैज्ञानिक गिल्स इरिक सेरालिनी के चौंकानेवाले अध्ययन में जीएम खाद्य पदार्थो से मानव स्वास्थ्य को नुकसान के बारे में विस्तार से बताया गया है. चूहों को लंबे समय पर जीएम खाना देने के बाद सेरालिनी ने पाया कि उनके किडनी के आकार बड़े हो गये हैं, शरीर की संरचना पर असर पड़ा है और उनकी मृत्यु दर बढ़ गयी है.
इस अध्ययन के बाद हमें सोचना चाहिए कि खाने की ऐसी चीजों की जरूरत है या नहीं. इस शोध के बाद इसके समर्थक व विरोधियों के बीच दुनियाभर में जोरदार बहस हुई, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप के बीच चूहों पर लंबी अवधि के शोध को दुहराने की बात पीछे छूट गयी.
इस पर्यावरण दिवस का तीसरा और आखिरी विषय है सेव (बचाओ). मेरा मानना है कि खाद्य पदार्थो की बर्बादी कम करने के साथ ही तकनीक के नाम पर गैर जरूरी खाद्य पदार्थो के उत्पादन पर भी ध्यान देना जरूरी है. इस समय वैश्विक स्तर पर 40 से 50 फीसदी खाद्य पदार्थ बर्बाद हो रहा है. एक समय सबसे प्रसिद्ध कीटनाशक डीडीटी सबसे सुरक्षित माना जाता था. इससे पहले अमेरिका द्वारा वियतमान में एजेंट ऑरेंज गैस का उपयोग किया जाता था. हाल में फैटी एसिड को सुरक्षित माना जाता था. समय के साथ सभी दावे गलत साबित हुए. उसी प्रकार जीएम खाद्य पदार्थो की सुरक्षा भी संदेह के घेरे में है. उद्योगों के दावों पर पूरी तरह भरोसा करने की बजाय महत्वपूर्ण यह है कि ऐसे गैर जरूरी उत्पादों से हम खुद को कैसे बचाएं?
इसलिए इस साल के पर्यावरण दिवस का उपयोग हमें जीएम फसलों के प्रति जागरूकता फैलाने में करना चाहिए. यह तभी संभव है जब हम सभी पहले सोचें, तब खायें और अंत में भोजन को बचाने की कोशिश करें.