कला पर न लगे अनावश्यक प्रतिबंध
जगदीश रत्तनानी वरिष्ठ पत्रकार editor@thebillionpress.org नामचीन अभिनेता, निर्देशक तथा निर्माता अमोल पालेकर एक मृदुभाषी वक्ता हैं, पर वे एक दमदार बात रख सकते हैं. पिछले सप्ताह वे मुंबई के नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में स्वर्गीय कलाकार प्रभाकर बर्वे की एक अरसे के दौरान विकासशील कलाकृतियों की प्रदर्शनी में अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित […]
जगदीश रत्तनानी
वरिष्ठ पत्रकार
editor@thebillionpress.org
नामचीन अभिनेता, निर्देशक तथा निर्माता अमोल पालेकर एक मृदुभाषी वक्ता हैं, पर वे एक दमदार बात रख सकते हैं. पिछले सप्ताह वे मुंबई के नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में स्वर्गीय कलाकार प्रभाकर बर्वे की एक अरसे के दौरान विकासशील कलाकृतियों की प्रदर्शनी में अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित थे. पालेकर ने इस मौके पर केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय के तौर-तरीकों के विरुद्ध अपनी असहजता को अभिव्यक्त किया.
उन्होंने कोई भी क्रांतिकारी बात नहीं कही, फिर भी उनके बोलने के दौरान व्यवधान डाले गये, उन्हें चुनौतियां दी गयीं और उन्हें बोलने नहीं दिया गया. उसके बाद जो विवाद पैदा हुआ, उससे निश्चित रूप से इस प्रदर्शनी को एक बड़ी सफलता मिलेगी, क्योंकि अगले सप्ताह या उसके बाद भी और अधिक दर्शक इस गैलरी में आयेंगे.
पर उसी परिमाण में इसे लेकर ये चिंताएं भी मुखर होंगी कि किस तरह वैसी जगहों पर भी विरोध की आवाजें दबा दी जाती हैं और मतभेद मार दिये जाते हैं, जहां दरअसल उन्हें न सिर्फ कला के लिए, बल्कि आवाजों की विविधता तथा अभिव्यक्ति की विधाओं के लिए भी जीवनपोषक रक्त तथा प्रेरणास्रोत होना चाहिए था.
क्योंकि, यह प्रदर्शनी वस्तुतः इन्हीं मूल्यों का जश्न मना रही है और पालेकर की आवाज दबाते वक्त इन मूल्यों की हत्या के प्रयास किये गये. इसलिए पालेकर ने जब आयोजकों से इस पर विचार करने को कहा कि जिस कलाकार को लेकर यह प्रदर्शनी आयोजित है, उसने चुप कराने की इस कार्रवाई को लेकर क्या सोचा होता, तो वे बिल्कुल सही थे.
पालेकर ने ऐसा क्या कहा, जो इस कदर उत्तेजित करनेवाला था? वीडियो रिकॉर्डिंग एवं रिपोर्टों के अनुसार उनकी बातें इस प्रकार थीं- ‘आपमें से बहुतों को यह नहीं पता होगा कि यह प्रदर्शनी स्थानीय कलाकारों की सलाहकार समिति द्वारा- न कि किसी ऐसे नौकरशाह अथवा सरकारी एजेंट द्वारा जो नैतिक ‘पुलिसिंग’ अथवा किसी खास वैचारिक झुकाव के अनुरूप कला को बढ़ावा देने के एजेंडे पर चलता हो- निर्णीत अंतिम शो होगा.’
पालेकर उस रिपोर्ट का संदर्भ ले रहे थे, जिसके अनुसार स्थानीय कलाकारों की सलाहकार समिति भंग कर दी गयी थी और आगे कैसी कलाकृतियां प्रदर्शित की जायें, इसका निर्णय सरकारी बाबुओं के द्वारा ही होनेवाला था. पालेकर से कहा गया कि वे विषयवस्तु तक ही सीमित रहें और उस कलाकार के विषय में ही बोलें, जिसकी कलाकृतियां प्रदर्शित हैं.
यह विवाद जिस प्रदर्शनी में पैदा हुआ, उसका नाम ‘इनसाइड दि एम्प्टी बॉक्स’ है और यह प्रभाकर बर्वे की पहली प्रदर्शनी है, जिसका आयोजन नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, मुंबई, ने ‘बोधना आर्ट्स एंड रिसर्च फाउंडेशन’ नामक एक संगठन के सहयोग से किया था.
जैसा संस्कृति मंत्रालय ने इस अवसर पर स्वयं उल्लिखित किया- ‘वर्ष 1995 में अपनी असामयिक मृत्यु के पश्चात प्रभाकर बर्वे आज भी अपनी खुद की शैली के साथ एक अनोखे कलाकार हैं और इस परियोजना का उद्देश्य इस कलाकार की कलाकृतियों तथा उनकी डायरी के अनकहे नोटों की एक शृंखला के माध्यम से उनके मस्तिष्क को पढ़ने का प्रयास करना है. इस प्रदर्शनी का नाम 1990 के दशक में इस कलाकार द्वारा सृजित कला शृंखला से लिया गया है, जिसमें बॉक्स का दोहरा अर्थ है.
एक तो उसका शाब्दिक अर्थ है, जिसके अनुसार यह एक ऐसी जगह है, जिसमें अभिलेख, यादें एवं अहम चीजें बरसों तक अनछुई पड़ी रहती हैं. दूसरी ओर, यह बॉक्स एक तरह से इस कलाकार का मस्तिष्क भी है.’ और यह एक विडंबना ही है कि इसका जश्न मनाते वक्त ही कलाकारों के इस समुदाय के एक सदस्य की आवाज दबा देने की कोशिशें की गयीं.
मामले का दिलचस्प पहलू यह है कि अपने भाषण के दौरान पालेकर ने यह भी कहा कि ‘मैं वास्तविक स्थिति से अवगत नहीं हूं और केवल यह सुना है कि स्थानीय कमेटियां भंग करते हुए नियंत्रण संस्कृति मंत्रालय के बाबुओं के हाथों जा रहा है.’
उन्होंने सिर्फ एक चिंता प्रकट की, फिर भी अपनी आलोचनाओं के प्रति हमारा तंत्र इतना संवेदनशील है कि उसने इसे एक ऐसी बात मान ली, जिसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.
हमें यह नहीं मालूम कि ऐसा किये जाने का निर्देश मंत्रालय के किसी व्यक्ति ने दिया- संभवतः इसने ऐसा उन कई तरीकों में से किसी एक का इस्तेमाल करते हुए किया होगा, जिनमें वह अपने संकेत भेज सकता है कि क्या वांछनीय है और क्या नहीं.
मुद्दे की बात यह है कि यह प्रवृत्ति कला एवं अभिव्यक्ति की हत्या कर देगी. एक जमाना वह भी था, जब उभरते कलाकार किसी सार्वजनिक स्थल पर घंटों बैठ अपने आसपास की दृश्यावलियां कैनवास पर समेटने की कोशिश करते दिख जाते थे. पर अब उन्हें भी सुरक्षा के नाम पर वहां से चले जाने को कहा जाता है. कला पर ऐसे अनावश्यक प्रतिबंध हमें कुछ ऐसी चीजों से वंचित कर देंगे, जो अत्यंत समृद्ध और उत्साहजनक होता है.
ये एक उभरते कलाकार को हतोत्साहित कर सकते हैं, जो प्रोत्साहन और आदर के साथ आनेवाले भविष्य के लिए एक सुरक्षा बोध से संपन्न हो निखार पाता है. अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध उस अवकाश को छीन लेते हैं, जो कला को विकसित होने की जगह मुहैया करता है.