सिर मुंडाते ही ओले पड़े
पहले खाड़ी युद्ध में बड़े बुश का अमेरिका शामिल था. दूसरी बार छोटे बुश का. इस बार अमेरिका शामिल भी है और नहीं भी. सऊदी अरब और ईरान भी कुछ ऐसे ही खेल रहे हैं. इस खेल में जान सस्ती होती है और पेट्रोल महंगा हो जाता है. नियंत्रण नहीं होना ही सभी दुखों का […]
पहले खाड़ी युद्ध में बड़े बुश का अमेरिका शामिल था. दूसरी बार छोटे बुश का. इस बार अमेरिका शामिल भी है और नहीं भी. सऊदी अरब और ईरान भी कुछ ऐसे ही खेल रहे हैं. इस खेल में जान सस्ती होती है और पेट्रोल महंगा हो जाता है.
नियंत्रण नहीं होना ही सभी दुखों का कारण है. अपने इर्द-गिर्द, भूत-वर्तमान में झांकिए, तो एहसास हो जायेगा कि मुसीबत आदमी को नाशाद नहीं करती. मुसीबत से निपटने में तो इंसान को मजा आता है. मुसीबत पर जब नियंत्रण नहीं हो, तो तकलीफ होती है. हमारे अच्छे दिनों को बुरी नजर लग गयी है, क्योंकि इराक पर हमारा नियंत्रण नहीं है. सत्ता के गलियारों में हड़कंप है कि इराक का मसला अगर ज्यादा लंबा खिंचा तो हमारे मसले खिंचेंगे कि हम दांत भींचने के अलावा कुछ कर नहीं पायेंगे. हमारे विकास की भूख को ईंधन चाहिए. सबसे बड़ा हिस्सा वहीं से आता है, जहां फिर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं. हमारे नागरिक मौत और जिंदगी के बीच फंसे गुहार लगा रहे हैं, सो अलग.
यह हमारा युद्ध नहीं कि जीत लें या हार जायें. यह तो 13 सदी पुराना युद्ध है, जो रह-रह कर जाग उठता है. पैगंबर के दुनिया छोड़ने के बाद से इसलामी दुनिया का बंटवारा हुआ, फिर करबला में दो फरीक के बीच खून की लकीरें खिंचीं, जो आज रह-रह कर लहू मांगती हैं. उसी करबला की जमीन पर आज फिर शिया और सुन्नी आमने-सामने हैं. दुनिया आज एक दूसरे से इतनी करीब है कि एक का दर्द दूसरे को सालता है. खाड़ी के पहले युद्ध में हमारे मुल्क पर ऐसी मुसीबत आन पड़ी थी कि सोना गिरवी रखने की नौबत आ गयी थी. इस बार उतना बुरा हाल भले न हो, पर अगर इराक का युद्ध फैलता है, तो हमारी उम्मीदों का आसमान सिकुड़ेगा. पहले खाड़ी युद्ध में बड़े बुश का अमेरिका शामिल था. दूसरी बार छोटे बुश का. इस बार अमेरिका शामिल भी है और नहीं भी. सऊदी अरब और ईरान भी कुछ ऐसे ही खेल रहे हैं. इस खेल में जान सस्ती होती है और पेट्रोल महंगा हो जाता है. कई तहों में खेले जा रहे इस खेल को समझने के लिए एक रास्ता है डॉ फ्रेंकेस्टाइन की कहानी. यह काल्पनिक कहानी यथार्थ की दुनिया में कितनी बार उभरती व उघरती है. कहानी बहुत सरल है. डॉ फ्रेंकेस्टाइन ने शोध कर एक नये जानवर को जन्म दिया. उस दानव ने उनका जीना हराम कर दिया. उन्होंने उसे अपनी प्रयोगशाला में जन्म दिया था, प्रिय था, इसलिए उसे मारना नहीं चाहते थे, पर वह उनके प्रिय लोगों को मारने में सकुचाता नहीं था. उनकी अपनी कृति उनके गले की फांस बन गयी थी.
अगर आपने गौर किया हो तो सोचिए, अल कायदा कहां गया. दुनिया में दानवीय शक्ति का पर्याय बन चुका आतंकी संगठन, जो एक महाशक्ति के अस्तित्व को ङिांझोड़ने पर अटल था, पटल से गायब है. ओसामा समुद्र में दफन है. उसके सिपहसालार सब बिखर गये. सऊदी अरब के रियाल और अमेरिका के हथियार व माल से खौफ का मिसाल बने ओसामा के लाल जब अपने बनाने वालों पर ही लाल-पीले होने लगे, तो मामला बिगड़ गया. हमारी बिल्ली, हमीं को म्याउं! पर ओसामा कोई बिल्ली नहीं था. ओसामा ने अमेरिका पर हमला करवा दिया. सऊदी अरब में भी हमले करवाये. सऊदी शासकों के जिहाद का मंत्र अफगानिस्तान के बाद वह सऊदी भी ले जाना चाहता था. फिर लंबी जद्दोजहद के बाद अल-कायदा का खात्मा कर दिया गया. पर, उन लड़ाकों का क्या करते! जिनके मुंह लहू लग गया हो, उन्हें रूह अफजा में वो लज्जत नहीं आती.
अमेरिका के मित्र सऊदी अरब ने उन्हें नये दुश्मन दिये. यमन में, बहरीन में, सोमालिया में, केन्या में. सुन्नी साम्राज्यों से भरे खाड़ी देशों में सद्दाम के जाने के बाद इराक भी शिया हो गया था. शिया बहुल इराक पर सद्दाम की सुन्नी सेना ने कब्जा कर रखा था. सीरिया में शिया साम्राज्य था. ईरान इन सबकी मदद करता था. सऊदी पैसों ने सीरियाई शासक अल-असद के खिलाफ विद्रोह करवाया. जब उस विद्रोह को बर्बरता से दबा दिया गया, तो अल-कायदा के बचे लड़ाकों को भेजा गया. दो साल वहां लड़ते हुए वे इतने मजबूत हो गये कि उन्होंने इराक पर भी कब्जा जमाने की सोच ली. निदरेषों पर गोलियां बरसाना, पंथ अलग होने पर सिर काट देना जिहाद नहीं होता. कुरआन इस जिहाद की बात भी नहीं करता. पर इनको कुरआन के जिहाद से दरकार नहीं. अमेरिका व सऊदी आकाओं के आदेश से मतलब है. दोनों देश इन लड़ाकों को व्यस्त रखना चाहते हैं, क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है. शैतान इनके दिमाग में घर कर चुका है. इराक और सीरिया के टुकड़े जोड़ कर अगर एक नया सुन्नी मुल्क बन भी गया, तो भी सिलसिला यहीं खत्म नहीं होगा. आज नहीं तो कल, अमेरिका और सऊदी इसकी कीमत चुकायेंगे. ओसामा को बनाने की महंगी कीमत चुकायी दुनिया ने. ये सिर्फ उनका सिरदर्द नहीं है. भारत में प्रधानमंत्री मोदी पर सबकी उम्मीदें टिकी हैं. हमारे सिर मुंडाते ही ओले पड़े हैं.
कमलेश सिंह
इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक
kamlesh.singh @gmail.com