आइये, अपना आरक्षण ले जाइये

कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com राजस्थान में गुर्जरों ने अारक्षण की मांग का अपना पांचवां अांदोलन इस भाव के साथ वापस ले लिया है कि उनकी जीत हो गयी है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर गुर्जर समुदाय ने ही उनका सबसे मुखर स्वागत किया. उन्होंने राजस्थान ही बंद कर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 19, 2019 6:02 AM
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
राजस्थान में गुर्जरों ने अारक्षण की मांग का अपना पांचवां अांदोलन इस भाव के साथ वापस ले लिया है कि उनकी जीत हो गयी है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर गुर्जर समुदाय ने ही उनका सबसे मुखर स्वागत किया. उन्होंने राजस्थान ही बंद कर दिया. सड़कें बंद, रेलपटरियां बंद और अागजनी!
हमारे अारक्षण-अांदोलन का यह सफलता-सिद्ध नक्शा है- अपनी जातिवालों को इकट्ठा करना, स्वार्थ की उत्तेजक बातों-नारों से उनका खंडहर, भूखा मन तर्क-शून्य कर देना, किसी भी हद तक जा सकनेवाली असहिष्णुता का बवंडर उठाना, सरकार को कैसी भी धमकियां देकर ललकारना अौर अधिकाधिक हिंसा का नंगा नाच करना! सभी ऐसा ही करते हैं, गुर्जरों ने भी किया.
गुर्जरों समेत पांच अन्य जातियों को पांच प्रतिशत अारक्षण देने की घोषणा राजस्थान सरकार ने की. अारक्षण के बारे में 50 प्रतिशत की सुप्रीम कोर्ट की लक्ष्मण-रेखा पार करने के कारण अदालत में ऐसे सारे अारक्षण गिर जाते हैं.
ऐसा पहले हुअा भी है. केंद्र सरकार ने सवर्ण जातियों के लिए 10 प्रतिशत चुनावी-अारक्षण की जो घोषणा की है, वह भी 50 प्रतिशत की रेखा को पार करती है. कुछ राज्यों ने भी इस मर्यादा से बाहर जाकर अारक्षण दे रखा है. इन सबके बारे में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को कोई संयुक्त फैसला लेना है.
जिन-जिन को अारक्षण चाहिए, आइये अपना अारक्षण ले जाइये. अाखिर तो रोटी एक ही है अौर उसका अाकार भी वैसा ही है. इसके जितने टुकड़े कर सकें, कर लीजिये. मैं तो कहता हूं, सुप्रीम कोर्ट 50 प्रतिशत की अपनी लक्ष्मण-रेखा भी मिटा दे. फिर तो सब कुछ सबके लिए अारक्षित हो जाये! फिर अाप पायेंगे कि अारक्षण के जादुई चिराग को रगड़ने से भी हाथ में कुछ नहीं अाया- न जीवन, न जीविका !
रोटी तो एक ही है, लेकिन कोई नहीं चाहता कि रोटियां कई हों अौर उनका अाकार भी बड़ा होता रहे, ताकि अारक्षण की जरूरत ही न हो. सब चाहते यही हैं कि जो है, उसमें से ‘हमारा’ हिस्सा अारक्षित हो जाये. यह भी कोई पूछना नहीं चाहता, न कोई बताना चाहता है कि यह ‘हमारा’ कौन है? जिनका अारक्षण संविधान-प्रदत्त है, उनके समाज में ‘हमारा’ कौन है?
पिछले 70 सालों में वह ‘हमारा’ कहां से चला था अौर कहां पहुंचा? पिछड़े समाज का पिछड़ा हिस्सा अारक्षण का कितना लाभ ले पा रहा है? हर समाज का एक ‘क्रीमी लेयर’ है, जो हर लाभ या राहत को कहीं अौर जाने से रोकता भी है अौर छान भी लेता है. यह बात हम चारों बगल देख रहे हैं. पिछड़ी जाति का नकली प्रमाण-पत्र बनवानेवाले सवर्णों की कमी नहीं है अौर हर तरह की धोखाधड़ी कर सारे लाभ अपने ही परिजनों में बांट लेनेवाले पिछड़ों की भी कमी नहीं है.
अारक्षण की व्यवस्था पहले एक विफल समाज के पश्चाताप का प्रतीक थी, अाज यह सरकारों की विफलता की घोषणा करती है. हर तरफ से उठ रही अारक्षण की मांग बताती है कि तमाम सरकारें सामान्य संवैधानिक मर्यादाअों में बंधकर देश नहीं चला पा रही हैं.
हम चूके कहां? समाज के पिछड़े तबकों को अारक्षण की विशेष सुविधा देकर सरकारों अौर समाज को सो नहीं जाना था, बल्कि ज्यादा सजगता से अौर ज्यादा प्रतिबद्धता से ऐसा राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक चक्र चलाना था कि पिछड़ा वर्ग जैसा कोई तबका बचे ही नहीं.
लेकिन ऐसा किसी ने किया नहीं. अगर शिक्षा में या नौकरियों में अारक्षण वाली जगहें भरती नहीं हैं, तो सरकार को जवाबदेह होना चाहिए. उसे संसद व विधानसभाअों में इसकी सफाई देनी चाहिए कि ऐसा क्यों हुअा अौर अागे ऐसा नहीं हो, इसकी वह क्या योजना बना रही है.
अारक्षण का चलते रहना इस बात का प्रमाण है कि समाज के हर तबके को सामाजिक-अार्थिक-राजनीतिक अवसर का लाभ पहुंचाना इस व्यवस्था के लिए संभव नहीं है.
लागू अारक्षण को जारी रखने के लिए अांखें तरेरते लोग अौर नये अारक्षण की मांग करते हिंसक अांदोलनकारी, दोनों मिलकर कह तो यही रहे हैं न कि लोगों को खैरात बांटने अौर स्वार्थों की होड़ के अलावा दूसरा कुछ है ही नहीं.
अारक्षण की यह भूख बताती है कि अाजादी के बाद से अाज तक जिस दिशा में सरकारें चली हैं, वह समाज के हित की दिशा नहीं है. संविधान में राज्यों के लिए नीति-निर्देशक तत्वों को देखें अौर अपने समाज को देखें, तो यह समझना अासान हो जायेगा कि हमारा शासन कितना दिशाहीन, लक्ष्यहीन तथा संकल्पहीन रहा है.
न सबके लिए शिक्षा, न सबके लिए स्वास्थ्य, न पूर्ण साक्षरता, न हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा, न संपू्र्ण नशाबंदी, न जाति-धर्म की दीवारों को गिराने की कोई कोशिश, न समाज की बुनियादी इकाई के रूप में गांवों की हैसियत को संविधान व प्रशासन में मान्यता-कुछ भी तो हमने नहीं किया. रोजगारविहीन विकास को हमने प्रचार की चकाचौंध में छिपाने की कोशिश की, लेकिन भूख छिपाने से छिपती है क्या? इसलिए सारी जातियों के गरीब अारक्षण की लाइन में खड़े हैं. अौर संसद व विधानसभाअों में वह लाइन बड़ी होती जा रही है, जिसमें गरीबों के करोड़पति प्रतिनिधि खड़े होते हैं.
अाज अारक्षण वह सस्ता झुनझुना है, जिससे सभी खेलना चाहते हैं. लेकिन, इस व्यवस्था की चालाकी देखिये कि वह सबको एक ही झुनझुने से निबटा रही है, ताकि किसी को यह याद ही न रहे कि व्यवस्था का काम झुनझुने थमाना नहीं है.

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