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मित्रों पर निर्भर पाक-अर्थव्यवस्था

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org पुलवामा के आतंकी हमले की विभीषिका रोंगटे खड़े करनेवाली है. इसकी जिम्मेदारी जैश-ए-मुहम्मद ने ली है, जो पाकिस्तान से संचालित होता है. इस हमले के लिए उन्नत योजना, आपूर्ति व्यवस्था, हथियारों और विस्फोटक की प्राप्ति, धन प्रवाह तथा सटीक सूचना की आवश्यकता थी, जो संस्थागत और सुव्यवस्थित समर्थन […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
पुलवामा के आतंकी हमले की विभीषिका रोंगटे खड़े करनेवाली है. इसकी जिम्मेदारी जैश-ए-मुहम्मद ने ली है, जो पाकिस्तान से संचालित होता है. इस हमले के लिए उन्नत योजना, आपूर्ति व्यवस्था, हथियारों और विस्फोटक की प्राप्ति, धन प्रवाह तथा सटीक सूचना की आवश्यकता थी, जो संस्थागत और सुव्यवस्थित समर्थन ढांचे के अभाव में असंभव था.
ये सभी तत्व आइएसआइ के खुफिया ढांचे के अलावा संभवतः पाकिस्तान की सेना तथा यहां तक कि उसके सरकारी तंत्र की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष भागीदारी की ओर संकेत करते हैं. दूसरी ओर, ये हमारे खुफिया तंत्र की भीषण विफलता की ओर भी इशारा करते हैं, जिसे जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने भी स्वीकार किया है.
इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस घटना ने देश में अत्यंत उत्तेजनापूर्ण माहौल तथा सामाजिक एवं राजनीतिक ध्रुवीकरण की संभावनाओं के द्वार खोल दिये हैं.
पूरे देश में फैले कश्मीरी छात्रों तथा लोगों पर न केवल आक्रमण की, बल्कि कश्मीर की आर्थिक नाकेबंदी की आशंकाएं बलवती हो रही हैं. देश में तीन महीने से भी कम वक्त है आम चुनाव होने में. ऐसे में यों भी गैर-आर्थिक मुद्दों पर बढ़ते ध्रुवीकरण का माहौल तारी रहेगा. पुलवामा ने इस आग में घी डालने का काम किया है और जल्दी ही इस आतंकी हमले के राजनीतीकरण की वजह से इसके मुख्य चुनावी मुद्दा बन जाने की संभावनाएं हैं.
प्रश्न यह है कि भारत पुलवामा की प्रतिक्रियास्वरूप पाकिस्तान पर कौन-से दबाव डाल सकता है? निश्चित रूप से इसके दायरे में राजनयिक, आर्थिक तथा भू-राजनीतिक तत्व समाहित होंगे. वर्ष 2001 में ही संयुक्त राष्ट्र जैश-ए-मुहम्मद को एक आतंकी संगठन घोषित कर चुका है. इसके बावजूद वह पाकिस्तानी धरती से सक्रियतापूर्वक कार्यरत रहा है.
अमेरिका के अलावा दुनिया के पचास से भी अधिक देशों ने पुलवामा हमले की निंदा की है, पर इन सबका कोई खास असर पाकिस्तान पर नहीं पड़ेगा. आर्थिक मोर्चे पर भारत ने पाकिस्तान से सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा वापस लेकर वहां से आयातित होनेवाली हर चीज पर 200 प्रतिशत सीमा शुल्क लगा दिया है. दरअसल, सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र का नाम भ्रमपूर्ण है, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सभी सदस्य देशों को अपने सभी व्यापारिक साझीदारों को बाजारों तक इसी स्तर की समान पहुंच प्रदान करनी है.
ऐसे में इसका अर्थ ‘सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र’ की बजाय ‘समान स्तर’ ही होता है. पर अपवादस्वरूप परिस्थितियों में देशों को किसी खास देश से यह दर्जा वापस लेने का अधिकार दिया गया है.
इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान से हमारा आयात महज 44.8 करोड़ डॉलर का ही है, जो भारत के कुल आयात के 0.01 प्रतिशत से तथा पाकिस्तान के कुल निर्यात के 2 प्रतिशत से भी कम है.
इसलिए इस कदम का प्रतीकात्मक मूल्य मात्र ही है. एक साझे इतिहास तथा विशाल कारोबारी संभावनाओं के बावजूद दोनों देशों के बीच व्यापार और वाणिज्य का अस्तित्व न के बराबर है. तथ्य यह है कि दक्षिण एशिया विश्व का एकमात्र क्षेत्र है, जहां अंतरक्षेत्रीय व्यापार अत्यंत न्यून यानी कुल विदेश व्यापार के पांच प्रतिशत से भी कम है.
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लगभग 300 अरब डॉलर की है और यह भारतीय अर्थव्यवस्था के आठवें हिस्से के बराबर है. पाकिस्तान पर कर्ज का असह्य बोझ है, जो बढ़ता ही जा रहा है. अभी यह लगभग 27 लाख करोड़ पाकिस्तानी रुपये के बराबर है, जिसमें 100 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज भी शामिल है
इसका अर्थ यह है कि पाकिस्तान को प्रतिवर्ष 12 अरब डॉलर तो कर्ज की बकाया रकम पर वार्षिक अनुरक्षण (एनुअल सर्विसिंग) के लिए चाहिए, जबकि उसके पास आठ अरब डॉलर का ही सुरक्षित भंडार है, जो तीन माह से भी कम अवधि के निर्यात के बराबर है. दिसंबर 2017 से एक वर्ष के दौरान पाकिस्तानी मुद्रा 35 प्रतिशत से भी अधिक मूल्यह्रास (डेप्रिसिएशन) का शिकार बन गयी.
अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने पाकिस्तान को निवेशयोग्य कोटि से नीचे ‘जंक ग्रेड’ में डाल रखा है. यहां विदेशी निवेश में पिछले एक वर्ष के दौरान 20 प्रतिशत की कमी आ गयी है, जबकि इसका रक्षा बजट वहनीय अनुपात से काफी ऊंचा है. यही वजह है कि इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान की नयी सरकार विदेशों से फंड जुटाने के आक्रामक अभियान में लगी हुई है, जिसमें उसे सफलता भी मिलती नजर आ रही है.
पुलवामा के सिर्फ दो दिन बाद ही सऊदी अरब के वली अहद (क्राउन प्रिंस) मुहम्मद बिन सलमान एक बड़े प्रतिनिधिमंडल के साथ पाकिस्तान पहुंचे हैं, जो 20 अरब डॉलर के निवेश की पेशकश करने जा रहा है. इसमें ग्वादर बंदरगाह में 10 अरब डॉलर के पेट्रोकेमिकल काॅम्प्लेक्स तथा तेलशोधक कारखाने भी शामिल हैं. सऊदी सरकार के पास लगभग एक लाख करोड़ डॉलर की राजकीय संपदा निधि है, निवेश की उपर्युक्त रकम जिसका एक छोटा हिस्साभर है.
इसके पहले भी इमरान खान द्वारा सऊदी अरब की यात्रा के वक्त उसने पाकिस्तान को छह अरब डॉलर की आपात मदद दी, जिसका आधा रियायती कर्ज था. ऐसी उम्मीद है कि चीन भी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर होकर गुजरनेवाले विवादास्पद चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) समेत बेल्ट एवं रोड पहल के तहत पाकिस्तान को कुल 60 अरब डॉलर से भी अधिक की मदद देगा.
संयुक्त अरब गणराज्य द्वारा पाकिस्तान में 30 अरब डॉलर के निवेश की संभावना है. अमेरिका ने कहा है कि वह पाकिस्तान द्वारा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) को दिये गये ‘बेल आउट पैकेज’ समेत उसकी ऋण स्थिति की समीक्षा कर आइएमएफ पर दबाव डालेगा कि वह पाकिस्तान को एक आपात ऋण मंजूर करे.
अपनी विफल होती अर्थव्यवस्था तथा अत्यंत अवहनीय ऋण स्थिति के बावजूद पाकिस्तान अपने इन मित्रों से कुल 100 अरब डॉलर की मदद की उम्मीद कर सकता है. सऊदी अरब ईरान के साथ अपने अमैत्रीपूर्ण संबंधों की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में देखता है.
चीन द्वारा उसके समर्थन करने के अपने विशेष कारण हैं, जिनमें ग्वादर बंदरगाह तथा अरब सागर तक उसकी पहुंच भी शामिल है. इस तरह, इस प्रायद्वीप में इतिहास की आगामी राह पर ऋण उगाहने की पाकिस्तानी क्षमताओं का असर पड़े बगैर न रहेगा.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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