बासी भात में खुदा का साझा

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com आम चुनावों की आहट पाते ही छोटे दलों के उजाड़ उपवनों में वसंत छाने लगता है. लोकदल, पीएमके, डीएमडीके, अपना दल, लोजपा, मनसे और न जाने कितने दलों में नयी कोंपलें निकल आती हैं. संस्थाओं, नियमों, परंपराओं पर टिके लोकतंत्र में ये वन-उपवन सहजता से फलते-फूलते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 22, 2019 6:19 AM
मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
आम चुनावों की आहट पाते ही छोटे दलों के उजाड़ उपवनों में वसंत छाने लगता है. लोकदल, पीएमके, डीएमडीके, अपना दल, लोजपा, मनसे और न जाने कितने दलों में नयी कोंपलें निकल आती हैं.
संस्थाओं, नियमों, परंपराओं पर टिके लोकतंत्र में ये वन-उपवन सहजता से फलते-फूलते रहते हैं. लेकिन, राजनीतिक कर्म की परंपराएं हमारे यहां अभी तक बन नहीं पायी हैं. वजह यह है कि बगिया के भीतर-बाहर बार-बार साझेदारी के कोटे के भीतर परकोटे बनते-बिगड़ते रहते हैं. लिहाजा हर चुनाव में नये गठजोड़ साधने और पुरानों का तेल-पानी फिल्टर दुरुस्त करने के लिए अनुभवी मेकेनिकों की हांक पड़ती है.
साल 1967 से 2014 तक के चुनावों में जब-जब वोटरों ने उसे नकारा और देश की कोई बड़ी राष्ट्रीय जनाधारवाली पार्टी कमजोर पड़ी, तो प्रांतीय क्षत्रपों और पार्टी ठेकेदारों की बन आयी. इस बार भी वही हो रहा है. भाजपा अधिक नहीं लड़खड़ायी, पर 2014 के मुकाबले उसकी लोकप्रियता गिरी है.
मोदीजी की छवि और उज्ज्वल बनाने के फेर में शेष नेता जनता की निगाहों में कोई खास वजन नहीं रखने लगे हैं. मोदीजी ने उनको मौका भले ही दिया हो, पर एक निश्चित दूरी बनाये रखी. मानो रोजमर्रा की कालिख से उनका कोई वास्ता न हो और वे राजनीति की दलदल के बहुत ऊपर एक कमलवत पवित्र पुष्प हों. इसी कारण जब देश में निराशा और गुस्सा फैलता है, तो लोग उनको नहीं कोसते.
उनके साये में फल-फूल रहे अन्य मंत्रियों को कोसते हैं कि वे मोदीजी की जनहितकारी योजनाओं को फलीभूत होने से रोक रहे हैं. लो प्रोफाइल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक अगर पार्टी अध्यक्ष के साथ लगातार एप्रन पहन जोड़-तोड़ करनेवाले मेकेनिकों-ठेकेदारों से मंत्रणा करते दिखें तो कारीगरों, ठेकेदारों और दल प्रमुख के बीच की दूरी खत्म होने से सारे दलों की छवि और नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं.
जातीय समीकरणों के गणित पर टिके उत्तर प्रदेश में बसपा-सपा की दलित-पिछड़ा समूह युति ने भाजपा के माथे पर बल डाल दिये हैं. इस बड़े प्रदेश में ही हार-जीत का फैसला तय होता रहा है. ओमप्रकाश राजभर या अनुप्रिया पटेल सरीखे छोटे दलों के नेता भी लाखों वोटों का बैंक चलाते हैं, जिनका सीटों की तादाद पर निर्णायक असर होता है.
इन दोनो की चिरौरी करने के साथ भाजपा अब सपा के शिवपाल सरीखे बिछड़े नेताओं से भी संपर्क साधने में लगी है. कांशीराम ने कहा था कि बेस वोट की रक्षा करो और साथ ही अन्य दलों के कोर वोट का पीछा भी मत छोड़ो. यह आज भी प्रासंगिक है.
महाराष्ट्र में शिवसेना की भाजपा के साथ तीन दशकों से खटमिट्ठी साझेदारी रही है. इस युति में शुरू में भाजपा की हैसियत एक गरीब रिश्तेदार की थी, जो खानदानी कोठी के अंतिम पंगत में बिछी पत्तलों पर जीम कर भी संतुष्ट हो रहता है. धीमे-धीमे उसकी हैसियत बदली और तेवर भी. बाला साहेब के निधन के बाद गृहकलह से लड़खड़ायी शिवसेना ने 2014 में राज्य को आधी लोकसभा सीटें भाजपा को दे दीं.
भाजपा की लहर में भाजपा ने उस चुनाव में शिवसेना से दोगुनी सीटें पायीं और गठजोड़ के कर्ता की हैसियत से अहम फैसले लेने का हक भी पा लिया. एक अरसे बाद संघ-भाजपा चयनित एक युवा ब्राह्मण को, जो कभी महाराष्ट्र में गठजोड़ का हुनरमंद मेकेनिक हुआ करता था, महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया. शिवसेना इस बात से तिलमिलाती रही है.
बहरहाल 2019 के चुनावों से पहले एक बार फिर वहां बाजी सलटा ली गयी है. अमित शाह ने समयानुकूल लचीला रुख अपनाया और खुद मातोश्री जाकर कई तरफ की चुनौतियों में घिरी अपनी पार्टी के लिए 48 में से 25 और सेना को 23 सीटें देना स्वीकार करवा कर ठाकरे परिवार से (सूत्रों के अनुसार पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों की इच्छा के विपरीत) ‘जय जगदीश हरे’ गवा लिया है.
लेकिन अब भी दो छोटे दल, नेता, असदुद्दीन ओवैसी और प्रकाश आंबेडकर इस युति से बाहर ही सही वक्त और साझीदार तलाश रहे हैं और उनका यूपीए से संभावित गठजोड़ भाजपा के लिए चिंता का विषय बताया जा रहा है.
उधर तमिलनाडु में भी गठजोड़ सध रहे हैं. जयललिता की मृत्यु के बाद से अन्नाद्रमुक नेतृत्व और भाजपा के करीबी रिश्ते जगजाहिर हैं. उत्तर में इस बार कम सीटें आने की आशंका से भाजपा कुछ अधिक तेजी से दक्षिणाभिमुखी बन रही है.
भावताव में भाजपा को सूबे की कुल 39 सीटों में मिल रही 14 सीटों पर जीत की भारी उम्मीद थी. इसके बाद अन्नाद्रमुक के पास 25 सीटें बचती थीं, जिनमें से उसे लघुतर दलों को भी साझेदारी देनी होगी. ऐसे में 14 सीटों के आश्वासन से खुश पार्टी प्रेसिडेंट सरीखी वजनी शख्सियत इस प्रेम-सगाई पर मुहर लगाने को चेन्नई जानेवाली थी.
तभी क्षितिज पर पीएमके नामक दल ने मशहूर विघ्नसंतोषी दल से सूबे की 39 लोकसभा सीटों में अपने लिए आवंटित तीन सीटों का कोटा अस्वीकार कर बासी भात में खुदा का साझा कहावत चरितार्थ दी. अब अन्य छोटे दल भी भाव-ताव करने लगे. तमिलनाडु में छोटे दलों के अपने जातीय उपजातीय वोटबैंक बहुत महत्व रखते हैं. उनकी अनदेखी कठिन मान कर फिर पूर्व वित्तमंत्री और मौजूदा रेल मंत्री भेजे गये और जैसे-तैसे भाजपा को पांच सीटें मिलीं और एक कामचलाऊ गठजोड़ बन गया.
दूसरे खेमे के मेकेनिकों ने तत्परता से कांग्रेस और द्रमुक के पुराने गठजोड़ की दुरुस्ती शुरू कर दी. कांग्रेस को द्रमुक ने पुडुचेरी सहित दस सीटें दे दी हैं, जिनके लिए दोनो दलों के नेता सही सीटों का बंटवारा करेंगे. एक छोटा दल डीएमडीके भी द्रमुक के पास मंडराता देखा गया है, पर फिलहाल पार्टी सुप्रीमो स्टालिन ने उससे गठजोड़ से इनकार किया है.
खींचतान अगर राष्ट्रीयता के खांचे के भीतर हो, तो राजनीति के वर्कशॉप में जत्थेदारों-मेकेनिकों की मौजूदगी से कोई खास आपत्ति नहीं होती.
आखिर एक संघीय गणराज्य में वे क्षेत्रीय अस्मिता और जनभावनाओं की विविधता के प्रतीक तो हैं ही. साथ ही समाज के कई परस्पर विरोधी वर्गों और ऐसी छोटी जातियों के हितों के भी प्रतिनिधि हैं, जिनका कोई मजबूत नेता नहीं है. नेताओं के सिर भले आसमान में हों, अपने पैर कालिख धूलभरी जमीन पर टिकाने को तो वे बाध्य करते ही हैं.
ऐसे में शिखर से भी हिमालयी शुभ्रता की उम्मीद नहीं की जा सकती. यही हमारे नेता हैं, यही दल हैं. इन पर उंगलियां उठाकर नैतिक या राजनीतिक आधारों पर निरंतर कोसने से अच्छा है कि फिलहाल हम सब बदतर के बीच से बेहतर का चुनाव कर उनसे ही काम चलाएं.

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