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नामवर की नामवरियत
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com जैसे शमशेर की शमशेरियत, वैसे नामवर की नामवरियत. इस नामवरियत पर विस्तार से विचार बाकी है. नामवर सिंह ने पहले अपने को निर्मित किया, फिर पूरे वातावरण को. ‘पुस्तक पगी आंखें’ त्रिलोचन ने 1957 में ही लिखा था. हिंदी आलोचना के इतिहास में नामवर जैसे यश-प्रसिद्धि, अन्य किसी आलोचक को नसीब […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
जैसे शमशेर की शमशेरियत, वैसे नामवर की नामवरियत. इस नामवरियत पर विस्तार से विचार बाकी है. नामवर सिंह ने पहले अपने को निर्मित किया, फिर पूरे वातावरण को. ‘पुस्तक पगी आंखें’ त्रिलोचन ने 1957 में ही लिखा था.
हिंदी आलोचना के इतिहास में नामवर जैसे यश-प्रसिद्धि, अन्य किसी आलोचक को नसीब नहीं हुई. रामचंद्र शुक्ल से भी अधिक नामवर लंबे समय तक आलोचना और आलोचना-चर्चा के केंद्र में रहे. एक नामवर में कई नामवर हैं- आलोचक, विमर्शकार, अध्येता, अध्यापक, संपादक, विवादी, संवादी, डिप्लोमेट नामवर.
उनकी नामवरियत पचास के दशक के अंतिम वर्षों से बननी शुरू हुई- नयी कहानी और नयी कविता की आलोचना-बहस से. मार्क्सवाद और रूपवाद का ऐसा सह-संबंध किसी भी हिंदी मार्क्सवादी आलोचक में नहीं है. नामवरियत उनके अपने ‘अंदाज-ए-बयां’ में भी है, उनकी वक्तृता और वांग्मिता में भी है. वे एक साथ रूपवादी आलोचकों से भिड़े और मार्क्सवादी आलोचकों से भी. उन्होंने जितनी गुत्थियां सुलझायी, उतनी उलझायी भी- ‘जो समझ जाती है, गुत्थी फिर से उलझाता हूं मैं’.
‘इतिहास और आलोचना’ के 16 निबंधों में जो 1952-56 के बीच हैं, उन्होंने पोलेमिक्स (वाद-विवाद) की और मार्क्सवादी आलोचक के रूप में खड़े-तने रहे, पर निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ कहानी की भरपूर प्रशंसा करने और निर्मल को पहला नया कहानीकार सिद्ध करने के बाद वे रूपवाद की ओर मुड़े. ‘कविता के नये प्रतिमान’ (1968) में उनका विवेचन-चिंतन मार्क्सवादी नहीं है. इस पुस्तक के पहले ‘तनाव’ शब्द कविता की आलोचना के केंद्र में नहीं था. पहली बार इसी पुस्तक में ‘तनाव’ केंद्रीय शब्द बना.
नामवर ने एक साथ मार्क्स, एंगेल्स, कॉडवेल, रॉल्फ फैक्स, जॉर्ज लुकाच और ‘नयी समीक्षा’ के आधार-स्तंभ डॉन क्रोरैनसम, क्लिंथ ब्रुक्स, आइवर विंटर्स, एलेन टेट आदि को देखा, पढ़ा और समझा. कथाकारों में भी उन्होंने टाॅलस्टॉय, दास्तोवस्की, चेखव और पुश्किन के साथ-साथ फ्लाबेयर, स्टेंढल, लारेंस, थॉमस मान और डिकेंस को पढ़ा. स्वाभाविक था उनकी आलोचना में एक नये रसायन का बनना. नामवर ने हिंदी आलोचना को कोई नयी ‘समीक्षात्मक शब्दावली’ (क्रिटिकल टर्म्स) नहीं दी, कोई नया शब्द-पद निर्मित नहीं किया, फिर भी वे छाये रहे. यह बिना नामवरियत के संभव नहीं थी.
नामवर की नामवरियत समीक्षाशास्त्र तथा रचनात्मक साहित्य के बीच एक वस्तुपरक सह-संबंध (ऑब्जेक्टिव कोरिलेटिव) स्थापित करने में है. यह रामचंद्र शुक्ल में था, पर छायावादी कवियों से उनका भाव-विचार-संबंध वाजपेयी के भाव-विचार-संबंध से भिन्न था. नामवर ने समकालीन लेखन को आलोचना के केंद्र में स्थापित किया.
तूफान खड़ा होना लाजिमी था. उन्होंने हवा बनायी और आंधियां भी खड़ी की. ‘कविता के नये प्रतिमान’ में नगेंद्र को उन्होंने किनारे किया. नामवर ने अपने विमर्श में भारती, अज्ञेय, साही, लक्ष्मीकांत वर्मा सबको किनारे किया. बाद में अज्ञेय के प्रति वे मुलायम हुए. राज्यसत्ता को नामवर ने कभी चुनौती नहीं दी. वे जिस जेएनयू में (1 नवंबर, 1974 से 1 मई, 1987 तक) रहे- भारतीय भाषा केंद्र के संस्थापक, अध्यक्ष और प्रोफेसर के रूप में, उनके जीवन-काल में ही उस संस्थान पर लगातार आक्रमण हुए.
नामवर ने साहित्य के ‘स्वधर्म’ की रक्षा की. उन्होंने वैचारिक लड़ाई लड़ी. रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा से भी. इन दोनों का कद नगेंद्र से हजारों गुना बड़ा था. नामवर के लिए इन दोनों का कद छोटा करना संभव नहीं था. उन्होंने कई सवाल उठाये. साहित्य और आलोचना में रणनीति बनायी और हिंदी के सर्वाधिक विवादप्रिय आलोचक बने. उनके मौन और मुस्कान का भी अर्थ था और नामवर की आंखें/ नामवर का पुरबिया ठाठ और रंग था. नामवर का अपना नामवरी रंग था.
वे हिंदी के अकेले आलोचक थे, जिनमें एक साथ ‘बुद्धि, विद्या और वांग्मिता’ थी. नामवर ने अपने को नामवर बनाया और फिर उनके शिष्यों और प्रशंसकों ने उन्हें कंधों पर उठा लिया. उनके पहले किसी आलोचक ने वाचिक परंपरा कायम नहीं की थी. ‘बकलम खुद’ से अब तक नामवर की जितनी पुस्तकें प्रकाशित हैं, अभी तक उनका समग्र पाठ नहीं किया गया है और उस संदर्भ का भी नहीं, जिसे वे टेक्स्ट से अधिक महत्व देते थे. एक लंबे समय तक एक आलोचक का केंद्र में बने रहना साधारण घटना नहीं है. हिंदी के वे अपने ‘सर्जनात्मक आलोचक’ हैं. ‘पोलेमिकल क्रिटिक’ हैं.
हिंदी के जिन अध्यापकों ने नामवर को अधिक नहीं पढ़ा है, वे भी उनके व्याख्यानों को सुन कर उनके प्रशंसक बने. पचास वर्ष पहले अक्तूबर-दिसंबर 1969 की ‘आलोचना’ में ‘विश्वविद्यालय और साहित्य शिक्षा’ पर उन्होंने एक संवाद आयोजित किया था. उनकी चिंता यह थी कि साहित्य एक ‘विश्वविद्यालयीय विषय’ बन गया है.
वे साहित्य के ‘स्वधर्म से अपक्षरण’ को ‘कुछ शिक्षकों की अयोग्यता’ का परिणाम न मानकर ‘विश्वविद्यालयीय तंत्र में पूंजीवाद के प्रवेश की देन’ कहते थे- ‘पुराणों की भाषा में कहें, तो यह एक ऐसा राक्षस राज है, जिसमें आग जलना छोड़ देती है, हवा बहना छोड़ देती है, पानी शीतलता छोड़ देता है अर्थात् प्रत्येक वस्तु अपना धर्म छोड़ देती है.’
नामवर एक महान शिक्षक और बड़े आलोचक थे. अब उनकी अनुपस्थित उपस्थिति है. शरीर से अनुपस्थित, पर अपनी कृतियों में सदैव उपस्थित. नामवर नामवर थे और हमेशा रहेंगे भी. उनकी नामवरियत पर विचार भी होता रहेगा.
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