महंगाई से निबटने की रणनीति
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। अर्थशास्त्री जिन क्षेत्रों में अधिक संख्या में श्रमिक कार्यरत हैं. उन पर टैक्स की दर कम करने से वैश्विक स्तर पर इनकी प्रतिस्पर्धा की शक्ति में सुधार होगा और रोजगार में वृद्घि होगी. इससे सरकार को नोट कम छापने पड़ेंगे और महंगाई नियंत्रित होगी. जल्द ही वित्त मंत्री अरुण जेटली […]
।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
अर्थशास्त्री
जिन क्षेत्रों में अधिक संख्या में श्रमिक कार्यरत हैं. उन पर टैक्स की दर कम करने से वैश्विक स्तर पर इनकी प्रतिस्पर्धा की शक्ति में सुधार होगा और रोजगार में वृद्घि होगी. इससे सरकार को नोट कम छापने पड़ेंगे और महंगाई नियंत्रित होगी.
जल्द ही वित्त मंत्री अरुण जेटली अपना पहला बजट पेश करेंगे. देखना है कि बजट में महंगाई पर नियंत्रण के लिए क्या कदम उठाये जाते हैं. महंगाई का मूल कारण सरकारी खपत होता है. मान लीजिए अर्थव्यवस्था में 100 रुपये प्रचलन में है. 100 रुपये का माल भी उपलब्ध है. दुकानदार और खरीदार के बीच तालमेल है. सरकार 15 रुपये का टैक्स वसूल कर रही है और इससे सरकारी कर्मियों का वेतन और सड़क आदि में निवेश कर रही है. सब ठीक चल रहा है. ऐसे में नेताओं और अफसरों को लालच पैदा हो गया.
इन्होंने तय किया कि हम 10 रुपये का नोट छाप लेते हैं. सरकार का बजट पहले 15 रुपये था, अब बढ़ कर यह 25 रुपये हो गया. बाजार में पहले 100 रुपये के नोट और 100 रुपये का माल था. अब 110 रुपये के नोट प्रचलन में आ गये, जबकि माल पूर्ववत् 100 रुपये का ही रह गया. अब खरीदारों के पास 110 रुपये के नोट हैं, जबकि दुकानदार के पास 100 रुपये का माल है. दुकानदार ने स्थिति को भांप लिया और माल का दाम बढ़ा कर 110 रुपये कर दिया. महंगाई बढ़ गई. सरकार के द्वारा नोट छाप कर खपत करना ही महंगाई का मूल कारण है. यहां ‘सरकार’ शब्द का उपयोग मैं वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक दोनों के लिए समान रूप से कर रहा हूं.
यूपीए सरकार ने नोट छाप कर नरेगा जैसे जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के साथ-साथ भ्रष्टाचार एवं सरकारी कर्मियों के बढ़े हुए वेतन को पोषित किया था. ध्यान रहे कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि सरकारी खर्च से गरीब को रोजगार दिया गया अथवा नेताजी ने भ्रष्टाचार के माध्यम से रकम उड़ा ली. घरेलू बजट पर इससे कोई असर नहीं पड़ता है कि खर्च मोटरसाइकिल खरीदने के लिए किया गया या टीवी खरीदने के लिए. बजट दोनों तरह से गड़बड़ायेगा. इतना जरूर है कि मोटरसाइकिल से दफ्तर आने-जाने में समय बचेगा और भविष्य में आय बढ़ेगी, जबकि टीवी खरीदने से केवल आर्थिक परेशानी बढ़ेगी.
वर्तमान सोच है कि अर्थव्यवस्था के दो अलग-अलग हिस्से हैं. एक हिस्सा उत्पादक है. इसमें कृषि, उद्योग आदि क्षेत्र आते हैं जिन पर टैक्स लगा कर सरकार राजस्व एकत्रित करती है. दूसरा कल्याणकारी क्षेत्र है. यहां धन का खर्च जनकल्याण के लिए किया जाता है, जैसे बीपीएल को सस्ता अनाज उपलब्ध करा कर या नरेगा के माध्यम से रोजगार उपलब्ध करा कर. इन दो क्षेत्रों में विभाजन इस बात को दर्शाता है कि मूल रूप से अर्थव्यवस्था का चरित्र जनकल्याणकारी नहीं है. यदि ऐसा होता, तो पिछले 60 वर्षो में जनकल्याण हासिल हो गया होता और मनरेगा की जरूरत नहीं पड़ती. अर्थव्यवस्था के इस चरित्र में बदलाव जरूरी है.
जनकल्याण हासिल करने के लिए खर्च करना जरूरी नहीं है. ऐसी व्यवस्था बनायी जा सकती है कि टैक्स की वसूली भी बढ़े और जनकल्याण भी हासिल हो. जैसे कृषि में जुताई ट्रैक्टर से होती है. ट्रैक्टर पर भारी टैक्स लगा दिया जाये, तो बैल से जुताई तुलना में सस्ती पड़ने लगेगी. गांव के तमाम बाशिंदों को जुताई का काम मिल जायेगा. उन्हें मनरेगा की जरूरत नहीं रह जायेगी. अथवा टैक्सटाइल मिल पर टैक्स लगा दें, तो हैंडलूम बाजार में बिकने लगेगा और करोड़ों लोगों को रोजगार तत्काल मिल जायेगा. सरकार को ट्रैक्टर और टेक्सटाइल मिल से टैक्स भी मिलेगा और रोजगार भी उत्पन्न होंगे.
हर क्षेत्र में कुछ कंपनियां श्रमिकों से काम लेती हैं और कुछ ऑटोमेटिक मशीनों से. मशीनों का उपयोग करनेवाली फैक्ट्री पर ‘रोजगार टैक्स’ लगा दें, तो फैक्ट्रियों के लिए श्रमिकों से काम कराना लाभप्रद हो जायेगा. या मशीन का उपयोग करनेवाली कंपनी पर टैक्स बढ़ा दिया जाये और श्रमिकों का उयोग करनेवाली कंपनियों पर टैक्स घटा दिया जाये. तब सीमेंट उद्योग पर औसत टैक्स में कोई परिवर्तन नहीं होगा, लेकिन श्रमिकों का उपयोग लाभप्रद हो जायेगा. यही फामरूला पूरी अर्थव्यवस्था पर लगाया जा सकता है. मैन्यूफैक्चरिंग तथा सेवा क्षेत्र में उन कार्यो को चिह्न्ति किया जा सकता है, जहां श्रमिक अधिक संख्या में कार्यरत हैं.
इन क्षेत्रों पर टैक्स की दर कम करने से वैश्विक स्तर पर इनकी प्रतिस्पर्धा की शक्ति में सुधार होगा और रोजगार में वृद्घि होगी. इस नीति से सरकार को नोट कम छापने पड़ेंगे और महंगाई नियंत्रण में आ जायेगी. सरकारी खपत करने का दूसरा क्षेत्र सरकारी कर्मियों के पेंशन और वेतन हैं. आज देश सरकारी नौंकरों का, सरकारी नौकरों के द्वारा और सरकारी नौकरों के लिए चलाया जा रहा है. देश के 58 करोड़ नागरिक देश के इन दो करोड़ सरकारी नौकरों की सेवा करने में लगे हैं. बजट में स्पष्ट व्यवस्था की जानी चाहिए कि सातवें वेतन आयोग का कार्यक्षेत्र सरकारी कामकाज में सुधार तक सीमित रहेगा. सरकारी कर्मियों के वेतन पर विचार नहीं किया जायेगा. सरकारी खपत कम करना बजट की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.