रेशम-सा चमकदार नहीं भारत-चीन रिश्ता

।। पुष्पेश पंत ।। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार जब चीन यह कहता है कि किसी भी देश को दूसरे देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, तो यह साफ है कि अफगानिस्तान हो या पाकिस्तान, दहशतगर्दी को प्रोत्साहित करनेवाली कबाइली या फौजी तानाशाही से उसको ऐतराज नहीं. भारत के उपराष्ट्रपति हामिद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 1, 2014 3:46 AM

।। पुष्पेश पंत ।।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

जब चीन यह कहता है कि किसी भी देश को दूसरे देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, तो यह साफ है कि अफगानिस्तान हो या पाकिस्तान, दहशतगर्दी को प्रोत्साहित करनेवाली कबाइली या फौजी तानाशाही से उसको ऐतराज नहीं.

भारत के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के चीन दौरे ने उस देश के साथ हमारे रिश्तों में सुधार के बारे में अटकालबाजी को असाधारण रूप से तेज कर दिया है. अंसारी साहब के साथ विदेश सचिव भी हैं और वाणिज्य मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार संभालनेवाली निर्मला सीतारमन भी. इससे पहले चीन के प्रधानमंत्री भारत की यात्र कर चुके हैं और यह आशा व्यक्त कर चुके हैं कि नयी सरकार के साथ दोनों देशों के रिश्ते और भी मजबूत किये जा सकेंगे. इन सब का जिक्र इसलिए जरूरी है कि भाजपा के चुनाव अभियान के दौरान मोदी के भाषणों में चीन और पाकिस्तान के प्रति सख्त रवैया अख्तियार कर भारत के राष्ट्रहितों की हिफाजत के इरादे का ऐलान किया जाता रहा था. यूपीए-2 की सरकार के कार्यकाल में चीन की आक्रामक घुसपैठ नाकाबिले बर्दाश्त होती जा रही थी. अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन की छेड़खानी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

बहरहाल, हामिद अंसारी की चीन यात्र की पृष्ठभूमि इससे अधिक व्यापक है. हाल ही में चीन ने यह घोषणा की है कि वह भूमंडलीकरण के इस अंतर्निर्भरता वाले दौर में ऐतिहासिक रेशम राजमार्ग को फिर से चालू करना चाहता है. इस प्रस्ताव में रूस तथा अनेक मध्य एशियाइ गणराज्यों ने दिलचस्पी दिखायी है. भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि इस प्राचीन व्यापार-पथ का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में जम्मू-कश्मीर के उस भूभाग से गुजरता है, जो हमारी सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है.

गिलगिट एजेंसी से होता ग्वादर के बंदरगाह तक आवाजाही के सुगम बन जाने से इस राज मार्ग पर न केवल व्यापारियों के आधुनिक काफिले वरन सैनिक दस्ते भी आराम से गुजर सकते हैं. इस संभावना को ध्यान में रख कुछ रणनीति विशेषज्ञ इसे चीन की उस साजिश के हिस्से के रूप में ही देख रहे हैं, जिसके तहत भारत की नाकेबंदी का प्रयास वह उसे जहरीले मोतियों की माला पहना कर करना चाहता है. भारत के पड़ोसी देशों में अपनी मौजूदगी निरंतर बढ़ा कर तथा उनके आधारभूत ढांचे में सुधार में भागीदारी से चीन ने जो सामरिक पहल की है, उसका मुकाबला करने में भारत असमर्थ रहा है. विडंबना यह है कि हजारों साल पुराने संबंधों एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान की नींव पर भारत-चीन संबंधों का भव्य भवन खड़ा करने की महत्वाकांक्षा रखनेवाला भारत इस प्रस्ताव को एकाएक खारिज नहीं कर सकता.

हम पाठकों का ध्यान उस परियोजना की ओर आकर्षित करना चाहेंगे जो अजरबाइजान और ईरान से बरास्ता अफगानिस्तान और पाकिस्तान भारत तक तेल-गैस पाइप लाइन बिछानेवाली थी. बरसों यह सपना हम संजोये रहे, जब तक अचानक अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा के शांति उपयोग वाले समझौते की मरीचिका में फंसे नादान मनमोहन सिंह ने इसे चकनाचूर नहीं कर दिया. चापलूस सलाहकारों और दरबारी वैज्ञानिकों की जुगलबंदी ने लाभ लागत कि जगह अवसर लागत के सिद्धांत का प्रतिपादन शुरू कर इसे हाशिये पर पहुंचा दिया. हकीकत यह है कि रेशम राजपथ एक नहीं अनेक थे.

एक ऐसी नदी प्रणाली जिसकी मुख्यधारा से कई अन्य धाराएं जुड़ती-निकलती थीं. अविभाजित भारत में आज के पाकिस्तान तक पहुंचनेवाली धारा इनमें एक थी. अन्य चीन से तुर्की तक जानेवाले व्यपार-पथ थे. यदि रेशम राजपथ का पुनर्निर्माण हो रहा है, तो यह स्वागत योग्य है. पर बदली भूराजनैतिक परिस्थिति में हमें यह सवाल उठाना ही होगा कि इसका कितना नफा-नुकसान हमें हो सकता है.

बिना इस रेशम राजमार्ग के भी चीन के साथ भारत का व्यापार एक अरब डॉलर का आंकड़ा पार कर चुका है. यह व्यापार भारत के खिलाफ बुरी तरह असंतुलित है. अंसारी साहब ने इस ओर चीनी मित्रों का ध्यान खींचने की कोशिश की है कि भारत से सामान या सेवाएं खरीद इसे संतुलित करने के प्रयास में देरी नहीं की जानी चाहिए. चीनी सरकार के प्रतिनिधियों ने राजनयिक कौशल का परिचय देते हुए गेंद भारत के पाले में फेंक दी है- आप बताइए किस क्षेत्र में भारत अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की क्षमता के साथ यह कर सकता है?

यदि हमारे माल या सेवाओं की लाभ लागत प्रतियोगिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, तब फिर हमारी शिकायत जायज नहीं मानी जा सकती! इस विषय में विस्तार से कोई टिप्पणी करने से विदेश सचिव सुजाता सिंह कतराती रही हैं. जहां एक ओर हामिद अंसारी पंचशील की समसामयिक जगत में उपयोगिता पर बल देते रहे, वहीं चीन ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा बुलंद करते हुए भी पंचशील के सिद्धांतों की अपनी व्याख्या को ही रेखांकित करने को प्राथमिकता दी. यह बात दक्षिण एशिया के मौजूदा सामरिक परिदृश्य के मद्देनजर बेहद महत्वपूर्ण है.

जब चीन यह कहता है कि किसी भी देश को दूसरे देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, तो यह इशारा साफ है कि अफगानिस्तान हो या पाकिस्तान, कट्टरपंथी इस्लामी दहशतगर्दी को प्रोत्साहित करनेवाली कबाइली कुनबापरस्ती या फौजी तानाशाही से उसको कोई ऐतराज नहीं. जब तक उसके अपने स्वार्थ निरापद हैं, तब तक भारत यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि चीन का राजनयिक समर्थन इस दहशतगर्दी पर अंकुश लगाने के लिए वह प्राप्त कर सकता है. 1960 वाले दशक से पाकिस्तान-चीन की जो (भारत विरोधी) धुरी अंतरराष्ट्रीय मंच पर सक्रिय है, वह अभी ध्वस्त नहीं हुई है.

अंसारी नेहरू की विरासत का स्मरण कराते रहे. चीनी इसके जवाब में उससे भी पहले के दौर में रवींद्र नाथ ठाकुर की एशियाइ चेतना का उल्लेख करते रहे. सीमा विवाद को वह ‘इतिहास की विरासत’ बताते रहते हैं और इसे फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने की सलाह देते हैं. भारत हमेशा की तरह इस बार भी यही दोहरा कर शांत हो गया कि ‘नक्शे बदलने से जमीनी हकीकत नहीं बदलती!’ हमारे लिए यह नजरअंदाज करना कठिन है कि अतीत में जबरन जमीनी हकीकत बदलने का सूत्रपात नक्शे बदलने के साथ ही हुआ था.

इस बार भी चीन ने अरुणाचल प्रदेश को नये नक्शों में विवादास्पद बनाया है. भविष्य में यदि इस आधार पर वह भारत को चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बरजता है, तब हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी?

आज भारत और चीन का विवाद हिमालयी सीमांत तक सीमित नहीं. साउथ चाइना सी में सागर के गर्भ में छिपे तेल-गैस भंडार को लेकर वियतनाम के साथ या जापान के सेनकाकू द्वीप समूह के स्वामित्व को लेकर चीन का टकराव ऐसा है, जिससे भारत अछूता नहीं रह सकता. संक्षेप में, भारत-चीन संबंधों के भविष्य को रेशम की तरह चमकदार और कोमल समझनेवाला फिलहाल नादान ही कहा जा सकता है.

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