सिनेमा के स्वरूप पर उठते सवाल
अरविंद दास पत्रकार एवं लेखक arvindkdas@gmail.com पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक में फिल्म अध्येताओं के बीच बजरिये आंद्रे बाजां ‘सिनेमा क्या है’, बहस के केंद्र में था. असल में सिनेमा के चर्चित आलोचक और सिंद्धांतकार बाजां की इस नाम से मूल फ्रेंच भाषा में दो भागों में लिखी किताब का अंग्रेजी अनुवाद बाजार में […]
अरविंद दास
पत्रकार एवं लेखक
arvindkdas@gmail.com
पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक में फिल्म अध्येताओं के बीच बजरिये आंद्रे बाजां ‘सिनेमा क्या है’, बहस के केंद्र में था. असल में सिनेमा के चर्चित आलोचक और सिंद्धांतकार बाजां की इस नाम से मूल फ्रेंच भाषा में दो भागों में लिखी किताब का अंग्रेजी अनुवाद बाजार में आया था. करीब पचास वर्ष बाद एक बार फिर से सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र और स्वरूप को लेकर सवाल उठ रहे हैं.
ऑस्कर पुरस्कार देनेवाली संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज ने पिछले दिनों निर्णय लिया कि पुरस्कार समारोह के दौरान चार पुरस्कारों को ‘ऑफ एयर’ यानी विज्ञापनों के बीच ब्रेक के दौरान दिये जायेंगे. इसमें सिनेमैटोग्राफी, फिल्म एडिटिंग, लाइव-एक्शन शॉर्ट, मेकअप और हेयरस्टाइलिंग शामिल थे. बाद में, फिल्मकारों की आलोचना के बाद एकेडमी को यह निर्णय वापस लेना पड़ा.
मैक्सिको के चर्चित निर्माता-निर्देशक अल्फोंसो कुरों, जिनको एक साथ ‘रोमा’ फिल्म के लिए ‘बेस्ट डायरेक्टर’ और ‘बेस्ट सिनेमैटोग्राफी’ का ऑस्कर मिला, ने लिखा था- ‘सिनेमा के इतिहास में बिना ध्वनि, बिना रंग, बिना कहानी, बिना कलाकार और बिना संगीत के मास्टरपीस मौजूद रहे हैं, पर बिना सिनेमैटोग्राफी और संपादन के दुनिया की कोई भी फिल्म आज तक अस्तित्व में नहीं आयी है.’
हॉलीवुड और बॉलीवुड में बननेवाली फिल्मों में व्यावसायिकता प्रधान ‘कहानियों’ और ‘स्टारों’ पर इतना जोर रहता है कि दर्शक दृश्य योजना (मीज ऑन सेन), सिनेमैटोग्राफी, संपादन या ध्वनि तत्वों पर गौर ही नहीं करता. साथ ही दर्शकों के बीच सिनेमा के एप्रिशिएसन (रसास्वादन) पर जोर नहीं रहता है.
संचार क्रांति के इस आधुनिक दौर में देशी-विदेशी सिनेमा के विभिन्न रूपों से परिचय के बाद दर्शकों में मनोरंजन से आगे सिनेमा को एक स्वतंत्र कला माध्यम और विचार के रूप में पढ़ने की गुंजाइश बढ़ी है. आशा है आगामी वर्षों में दर्शक शैली (क्राफ्ट) पर भी ध्यान देंगे.
‘कल्ट फिल्म’ का दर्जा पा चुकी कमल स्वरूप निर्देशित ‘ओम-दर-ब-दर’ की संपादक प्रिया कृष्णास्वामी कहती हैं- ‘डी डब्लू ग्रीफिथ के समय से ही संपादन को फिल्म निर्माण में लेखन का दूसरा चरण माना जाता है.
संपादन के समय ही निर्देशक मूल स्क्रिप्ट के मुताबिक जो शूट करके लाता है उसमें से उसे क्या चाहिए, इसका निर्णय करता है.’ फिल्म में निर्देशक दृश्य, बिंब और ध्वनि का जिस तरह संयोजन करता है, वही उसे विशिष्ट बनाता है, लेकिन दर्शकों के ध्यान में पर्दे के पीछे बैठे तकनीशियन, आर्टिस्ट या संपादक कभी नहीं आते.
भारत की भानु अथैया को ‘बेस्ट कॉस्ट्यूम डिजाइन’ और रेसुल पोकुट्टी को ‘साउंड मिक्सिंग’ के लिए ही ऑस्कर पुरस्कार मिला था. बाजार के दबाव में लिये गये निर्णय से स्पष्ट है कि एकेडमी की नजर में सिनेमा मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन सिनेमा के अध्येता और सिनेमाप्रेमी पूछ रहे हैं कि बिना संपादक, बिना सिनेमैटोग्राफर सिनेमा का स्वरूप क्या होगा?