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वाह ढोलकिया वाह!

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार mithileshray82@gmail.com कक्का उस दिन सुर्ख लाल अड़हुल के फूलों को देर तक निहारते रहे थे. उन्हें आश्चर्य लग रहा था कि इस पौधे के पत्ते कितने हरे हैं और फूल कितने लाल! कहने लगे कि प्रकृति इंसान को रंग का एक अनमोल सुख भी देती है. जो न सिर्फ हमारी […]

मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
mithileshray82@gmail.com
कक्का उस दिन सुर्ख लाल अड़हुल के फूलों को देर तक निहारते रहे थे. उन्हें आश्चर्य लग रहा था कि इस पौधे के पत्ते कितने हरे हैं और फूल कितने लाल! कहने लगे कि प्रकृति इंसान को रंग का एक अनमोल सुख भी देती है. जो न सिर्फ हमारी भावनाओं को उद्दीप्त करने का काम करता है, बल्कि जीवन के आयाम में भी सहयोग करता है.
वे कह रहे थे कि इंसान अपने जीवन में रंग को घटाने के बारे में कभी नहीं सोच सकता. हां, खुशियों के रंग को और अधिक गाढ़ा और उदासियों के रंग को फीका करने के बारे में सोचा जा सकता है. मनुष्य जीवन प्रकृति का सबसे अनमोल उपहार है.
रंगों के बारे में कहते हुए कक्का को होली की याद आ गयी. कहने लगे, बीच-बीच में आकर त्योहार जीवन की एकरसता को तोड़कर उसमें नये धुन का संचार कर देता है.
होली तो त्योहारों में सिरमौर है. यह आता है, तो जीवन की जैसे धुन ही बदलने लगती है. जैसे ही फागुन दस्तक देता है, जीवन का ताल अलग हो जाता है और तराने भी जुदा हो जाते हैं. बोली में उल्लास के स्वर घुल जाते हैं और मस्तिष्क ऐसी चुहलबाजी के बारे में सोचने लगता है कि होठों को मुस्कुराने और उससे भी बढ़कर खिलखिलाने के ढेरों अवसर मिलने लगते हैं.
कक्का सही कह रहे थे. जब से फागुन उतरा है, मैं आस-पास के लोगों में एक परिवर्तन देख रहा हूं. कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि कहीं खुशी की कोई गठरी बांधकर रखी हुई थी और अब उसका मुंह खुल गया है.
खुशियां हवा में उड़-उड़कर चारों तरफ बह रही हैं और लोग उसे अपनी सांस के माध्यम से अपने भीतर खींचकर मुस्कुरा रहे हैं. मौसम भी इस खुशी को पूरी तरह जज्ब करने को लेकर साथ दे रहा है. जाड़ा अब फटने को है और फूलों को खिलने की आजादी मिल गयी है कि जितना चाहे खिलो.
कक्का तो यह भी कह रहे थे कि होली में उल्लास कुछ ज्यादा इसलिए भी फूट पड़ता है, क्योंकि खेत की ओर से कुछ आराम करने के संकेत मिलने लगते हैं.
वे अब अपने बल पर कृषक के सपनों को आकार देने में लग जाते हैं. कृषक खेतों में लगी फसल में दाने निकलते एवं उसको पकने के रंग में ढलते हुए देखते हैं और बाहर-भीतर मन से प्रफुल्लित होकर होरी छेड़ देते हैं- हरे-हरे खेतवा में पीली-पीली सरसों…
उस दिन देवी थान में भी गजब का दृश्य बन गया था. गीत गाते लोग खेत और फसलों की बातें कर रहे थे. तभी पता नहीं कहां से यह बात आयी और किसी ने यह कहते हुए ऊंचे स्वर में होरी उठा लिया कि पकती फसलों की ओर देखकर उल्लास के जब बोल फूटे होंगे, मनुष्य के मन में फागुन में होरी गाने का विचार आया होगा.
उल्लासित मन से छेड़ी गयी तान में पता नहीं कौन सा जादू था कि सभी लोग किसी तरंग पर सवार होकर डोलने लगे. घरों से साज निकल गये थे. ढोलक पर पड़ रही दमदार थाप से आवाज दूर तक जाने लगी थी और लोगों के कान में इस तरह उतरने लगी थी कि तभी ‘वाह ढोलकिया वाह’ के स्वर से पूरा वातावरण गूंजने लग गया था!

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