लोग गंगा से हैं और गंगा लोगों से है

।। राजेंद्र तिवारी ।। कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर बड़ा सवाल है कि क्या नया कार्यक्रम बनाने से पहले इस बात का विश्लेषण किया जायेगा कि गंगा एक्शन प्लान में सबसे बड़ी कमी क्या थी, जो इसके 29 साल बाद फिर से एक नये कार्यक्रम की जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है? गंगा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 2, 2014 4:11 AM

।। राजेंद्र तिवारी ।।

कॉरपोरेट एडिटर

प्रभात खबर

बड़ा सवाल है कि क्या नया कार्यक्रम बनाने से पहले इस बात का विश्लेषण किया जायेगा कि गंगा एक्शन प्लान में सबसे बड़ी कमी क्या थी, जो इसके 29 साल बाद फिर से एक नये कार्यक्रम की जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है?

गंगा इस समय राजनीति का बज वर्ड बनी हुई है. गंगा का बेसिन सिस्टम आठ राज्यों के लिए प्रभावी तरीके से ड्रेनेज का काम करता है. देश के कुल सिंचित क्षेत्र का 47 फीसदी गंगा के बेसिन में ही है. इसकी एक और खासियत है कि प्राचीन काल से गंगा यातायात और संचार के माध्यम के रूप में इस्तेमाल होती रही है. लेकिन अब इसकी यह खासियत लुप्त हो गयी है. क्यों? क्योंकि बढ़ती आबादी, तेज औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने देश के प्रमुख जलमार्ग को तहस-नहस कर दिया है.

भारत व बांग्लादेश में गंगा का मैदान कुल मिला कर 10 लाख 86 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. इसमें से 8 लाख 61 हजार 404 वर्ग किलोमीटर भारत में है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का 26 फीसदी है. गंगा 525 अरब घन मीटर पानी लेकर चलती है. आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि गंगा के प्रदूषण का 75 फीसदी हिस्सा शहरों और कस्बों के सीवेज का है. गंगा किनारे बसे सभी छोटे-बड़े शहरों का सीवेज इसी में गिरता है और इन 25 शहरों के 88 फीसदी सीवेज के ट्रीटमेंट की कोई व्यवस्था नहीं है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम व विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, इसमें औद्योगिक प्रदूषण की मात्र सिर्फ 25 फीसदी ही है. इससे समझा जा सकता है कि गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए किस तरह के कार्यक्रम की जरूरत है.

गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का पहला संगठित सरकारी प्रयास 1985 में शुरू हुआ था और इसको गंगा एक्शन प्लान का नाम दिया गया. इसका मुख्य उद्देश्य था गंगाजल में प्रदूषण की मात्र कम करना और इस प्रकार गंगाजल की गुणवत्ता को सुधारना. इस कार्यक्रम (गंगा एक्शन प्लान) में उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 प्रमुख छोटे-बड़े शहरों के लिए 261 छोटी-बड़ी स्कीमें बनायी गयी थीं. इन स्कीमों का फोकस मुख्य रूप से इन शहरों के सीवेज को नियंत्रित करना, डायवर्ट करना और ट्रीट करना था.

इस कार्यक्रम के पहले चरण के तहत मार्च, 2000 तक 34 सीवेज ट्रीटमेंट संयत्र लगाये गये, जिनकी क्षमता 86.9 करोड़ लीटर सीवेज के दैनिक ट्रीटमेंट की थी. इस पर 452 करोड़ रुपये खर्च हुए. कार्यक्रम का दूसरा चरण भी 1993 में ही शुरू कर दिया गया था, जिसके तहत उत्तराखंड से लेकर बंगाल तक के 59 कस्बों-शहरों को शामिल किया गया था. इसके तहत 319 स्कीमें शुरू की गयीं, जिसमें से 200 ही पूरी हो पायीं. इस पर 370 करोड़ रुपये खर्च हुए और 13 करोड़ लीटर सीवेज के दैनिक ट्रीटमेंट की क्षमता स्थापित की गयी. यहां गौरतलब यह भी है कि 1996 में गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण को राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना में तब्दील करके इसे 20 राज्यों की 36 नदियों तक फैला दिया गया.

राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय का मानना है कि गंगा एक्शन प्लान के मिश्रित नतीजे मिले. हालांकि, कई जगहों पर गंगा एक्शन प्लान के अच्छे नतीजे भी आये, लेकिन गंगा के प्रदूषण का कोई ठोस समाधान नहीं निकल पाया. जिन जगहों पर शुरुआत में अच्छे नतीजे आये, वहां भी संसाधनों के अभाव में फिर से हालात पुरानी स्थिति में पहुंच गये. यहां मुङो 1995 का एक वाकया याद आ रहा है. उन दिनों मैं बनारस में रहा करता था. एक दिन खबर मिली कि जहां सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं, वहां आसपास के गांवों में त्वचा की बीमारियां फैली हुई हैं.

वहां जाकर देखा तो गांव में कोई ऐसा घर नहीं था, जहां तक सीवेज की दरुगध न पहुंच रही हो, जहां अजीब तरह के कीड़े-मकोड़े न हों और जहां बच्चों के शरीर पर फुंसियां न हों व लोगों को त्वचा रोग न हो. लोगों ने बताया कि इलाज कराते हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं होता. थोड़े दिन ठीक रहता है और फिर परेशानी शुरू हो जाती है. कारण पता किया तो पता चला कि प्लांट तो बिजली के अभाव में चल ही नहीं पाता और सारी दिक्कतों की वजह यह प्लांट ही है. कुछ दिन बाद एक अखबार में इस पर खबर छपी, जिसका शीर्षक था- जब हम ही न बचेंगे, तो गंगा बचा कर क्या करोगे.

अब फिर गंगा को प्रदूषणमुक्त करने का अभियान शुरू हो रहा है. इस अभियान का स्वरूप क्या होगा, यह तो अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इससे क्या हासिल करना है, इसकी बातें जरूर हो रही हैं. लेकिन यह हासिल करना इस बात पर ही निर्भर करेगा कि इस अभियान या कार्यक्रम का स्वरूप क्या होगा. बड़ा सवाल यह है कि क्या नया कार्यक्रम बनाने से पहले इस बात का विश्लेषण किया जायेगा कि गंगा एक्शन प्लान में सबसे बड़ी कमी क्या थी, जो इसके 29 साल बाद फिर से एक नये कार्यक्रम की जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है? यदि हम गौर से देखें तो इसकी सबसे बड़ी कमी गंगा किनारे रह रहे लोगों को इसमें शुरू से शामिल न किया जाना ही निकल कर आयेगी. यानी गंगा किनारे बसे सभी कस्बों-शहरों की जनता की इसमें सीधी हिस्सेदारी न होना.

गंगा को प्रदूषणमुक्त करने का कार्यक्रम यदि ऊपर यानी दिल्ली से आयेगा, तो इसकी सफलता संदिग्ध ही रहेगी. अब सवाल यह है कि कैसे हम लोगों को इसमें शामिल करें. इसका जवाब है कार्यक्रम यानी अभियान की रूपरेखा निर्धारण का नीचे तक विकेंद्रीकरण. गढ़वाल के श्रीनगर से लेकर कोलकाता तक के सभी तटीय शहरी निकायों के स्तर पर जाकर योजना विकसित करना और लोगों के बीच यह जागरूकता या कहें कि संवेदनशीलता पैदा करना कि गंगा को स्वच्छ रखना सरकारी नहीं उनकी अपनी जरूरत है. इसे सिर्फ केंद्र सरकार के सफाई अभियान या सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्कीम के तौर पर नहीं, बल्कि एक जनअभियान के तौर पर खड़ा करना होगा, सफाई, सीवेज ट्रीटमेंट आदि जिसका एक हिस्सा भर हों. और यह तब हो पायेगा, जब शहरों को रहने लायक बनाना प्राथमिकता पर हो. सिर्फ आरती उतारने से कुछ नहीं होगा. लोग गंगा से हैं और गंगा लोगों से है.

अंत में.. पढ़िये कुमार प्रशांत की यह कविता-

सभी ने कपड़े उतार दिये हैं/ सभी नदी में डुबकी लगायेंगे/ सभी पाप की गठरी ढोकर लाये हैं/ सभी अपनी गठरी यहीं छोड़ जायेंगे.. बस इतना ही/ बहती नदी रुकती नहीं है/ बहती नदी थकती नहीं है/ बहती नदी पूछती नहीं है/ कहां से आये, क्या लाये, क्यों लाये और छोड़े किसके लिए जाते हो.. नदी ने सबको कपड़े पहना दिये हैं/ पानी की मटमैली चादर के नीचे/ न आदमी है, न पाप, न पुण्य, न हैसियत/ सिर्फ नदी है/ जो सबके भीतर बह रही है..

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