अमेरिका की नजर में भारत

पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com अमेरिकी प्रशासन ने यह घोषणा की है कि वह भारत का नाम उस सूची से हटा रहा है, जिसके सदस्यों को उस देश के साथ व्यापार करने में कुछ रियायतें-सहूलियतें दी जाती हैं. यह अनुमान लगाया जा रहा है कि हमें इससे होनेवाले घाटे की रकम साढ़े पांच […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 8, 2019 6:10 AM
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
अमेरिकी प्रशासन ने यह घोषणा की है कि वह भारत का नाम उस सूची से हटा रहा है, जिसके सदस्यों को उस देश के साथ व्यापार करने में कुछ रियायतें-सहूलियतें दी जाती हैं.
यह अनुमान लगाया जा रहा है कि हमें इससे होनेवाले घाटे की रकम साढ़े पांच अरब डॉलर की धनराशि के आसपास होगी. यह रकम बहुत बड़ी नहीं, परंतु जिस समय यह फैसला किया गया है, वह निश्चय ही अप्रत्याशित तथा क्लेशदायक है. क्योंकि, पुलवामा हमले के बाद भारत यह आशा कर रहा था कि उसका नया सामरिक साझीदार उसकी संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तान के उद्दंड शासकों पर अंकुश लगाने में मददगार होगा.
अमेरिका यानी ट्रंप सरकार का यह आरोप है कि भारत अपने बाजार में अमेरिकी उत्पादों तथा सेवाओं के प्रवेश के मार्ग में बाधाओं को हटाने के लिए कुछ नहीं कर रहा है; उसने इस संबंध में जो भी आश्वासन दिये हैं, उनको पूरा नहीं किया है. यदि इस शिकायत का परीक्षण करें, तो यह बात साफ होते देर नहीं लगेगी कि अमेरिका की शिकायत नाजायज है. भारत के बाजार अमेरिकी आयात से पटे हैं. देश के विकास के लिए जरूरी परिष्कृत तकनीक ही नहीं, विलासितापूर्ण उपभोग की वस्तुओं के आयात पर लगे प्रतिबंध धीरे-धीरे समाप्त हो चुके हैं.
बैंकिंग, बीमा, मीडिया आदि में अमेरिकी कंपनियां भारत में सेवाओं के निर्यात के मामले में भी सुविधाएं हासिल कर चुकी हैं. इस दिशा में यदि और अधिक प्रगति नहीं हुई है, तो कारण यह है कि अमेरिका उभयपक्षीय व्यापार को संतुलित करने के लिए एकतरफा रियायतें चाहता है और अपने बाजार को ‘सुरक्षित’ रखने पर आमादा है.
जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं, उन्होंने ‘अमेरिका के लिए अमेरिकी उत्पाद’ वाला नारा बुलंद किया है. उनकी समझ में चीन तथा भारत ने अमेरिकी कामगारों से रोजगार छीना है और वही अपने सस्ते श्रम और आर्थिक नीतियों के कारण अमेरिकी में आर्थिक मंदी के लिए जिम्मेदार हैं.
ट्रंप यह स्वीकार नहीं करते कि उनके देश की कंपनियां तथा उद्यमी अपने लाभ-लागत को ध्यान में रखते हुए चीन या भारत की भूमि से अपना कामकाज करते रहे हैं. मुक्त बाजार का तर्क प्रतिपादित करनेवाला अमेरिका खुद अपने जाल में उलझ रहा है, तो इसका दोष वह भारत के सिर नहीं मढ़ सकता.
चीन के विरुद्ध तो ट्रंप ने बाकायदा वाणिज्य युद्ध (ट्रेड वार) की घोषणा कर दी है. इससे भारत को यह गलतफहमी हुई थी कि इससे होनेवाले घाटे के लिए अमेरिका भारत की तरफ देखने को मजबूर होगा. ईरान के खिलाफ लगाये कड़े आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद अमेरिका ने यह संकेत दिया था कि कम-से-कम कुछ समय के लिए भारत को इनके दायरे से बाहर रखा जायेगा.
वह चाबहार बंदरगाह नवनिर्माण की परियोजना में काम जारी रख सकता है, बशर्ते वह ईरान से तेल आयात में कटौती करने को राजी हो जाये. अमेरिका के संधिमित्र सऊदी अरब ने तत्काल भरोसा दिलाया कि वह भारत को तेल संकट से बचायेगा और अधिक मात्रा में तेल सुलभ करायेगा. उल्लेखनीय है कि भारत ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए अमेरिका की चाहत पूरी करने का प्रयास किया है.
ईरान के साथ अपने पारंपरिक मैत्रीपूर्ण संबंधों को संकटग्रस्त करते हुए हमने अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका के राजनयिक दिशा-निर्देशों का पालन किया है. इसीलिए हमें यह बात खल रही है कि हमें इस घड़ी दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाला जा रहा है.
असलियत यह है कि ट्रंप को इस बात का एहसास हो चुका है कि चीन अब अमेरिकी प्रतिबंधों से होनेवाले आर्थिक नुकसान को सहने के लिए कमर कस रहा है. उत्तरी कोरिया के नेता किम जोंग-उन का प्रयोग चीन ने एक ताकतवर मोहरे के रूप में बहुत कौशल से किया है.
ट्रंप ने कल्पना की थी कि शिखर वार्ता के जरिये वह किम को मोह लेंगे और चीन से अलग कर उत्तर-पूर्वी एशिया में चीन के प्रभुत्व को कम करने में कामयाब होंगे. यदि ऐसा होता, तो अमेरिका आज चीन पर दबाव बढ़ाने की स्थिति में होता. लग रहा है कि इस मार्चे पर ट्रंप नाकाम रहे हैं, इसलिए तुनकमिजाज परमाणु शक्तिसंपन्न उत्तरी कोरिया को अनुशासित करने के लिए अमेरिका को चीन की ही तरफ देखना पड़ेगा.
इस नतीजे तक पहुंचने के साथ ही अमेरिका की नजर में भारत का ‘अवमूल्यन’ होना आरंभ हो जाता है. अब उस ‘सामरिक चतुष्कोण’ की बात नहीं सुनी जा रही, जिसके चार प्रस्तावित कर्णधार अमेरिका, भारत, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया थे. हिंद-प्रशांत क्षेत्र की चर्चा भी हाशिये पर पहुंच गयी है.
भारत के लिए सबसे चिंताजनक बात यह है कि अमेरिका ने इस बात की रत्ती भर परवाह नहीं की कि कुछ ही महीनों में भारत में चुनाव होने जा रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी की राजनयिक उपलब्धियों की चमक उसके इस फैसले से अचानक घट जायेगी. अमेरिका के ताकतवर राष्ट्रपति के साथ भारत के ताकतवर प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत संबंधों की विशेषता का प्रचार जोर-शोर से भारत में किया जाता रहा है.
पर्यावरण का संकट हो अथवा अफगानिस्तान में अराजकता-अस्थिरता के निवारण में अमेरिका के उस देश से लौटने के बाद भारत की भूमिका, हम यह मानकर चलते रहे हैं कि हमारे तथा अमेरिका के राष्ट्रीय हितों में साम्य न सही, कम-से-कम तात्कालिक सन्निपात तो है. ऐसे में, मेरा तो यही मानना है कि इस विषय में पुनर्विचार की जरूरत है.
यह सोचना नादानी है कि अमेरिका- ट्रंप राष्ट्रपति हों या कोई और- चीन तथा पाकिस्तान की तुलना में भारत को अहमियत देगा. ‘अमेरिका को अमेरिकियों के लिए’ आरक्षित रखने का संकल्प ग्रहण करने के दिखावे से ही ट्रंप चुनाव जीते थे- उसके बाद से अपने आलोचकों को कमजोर करने, उनको विभाजित रखने में ट्रंप अप्रत्याशित रूप से सफल रहे हैं.
अब किसी भी अमेरिकी नेता या प्रशासन के लिए अचानक दिशा-परिवर्तन कठिन होगा. भारत को प्राथमिकता देना तो दूर की बात है, दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप में भारत और पाकिस्तान को समकक्ष समझनेवाली अमेरिकी नीति में भी कोई अंतर सुदूर भविष्य में आनेवाला नहीं.
अमेरिका भलीभांति समझता है कि आज भारत के पास अमेरिका को संतुलित-निरस्त करने के लिए रूसी विकल्प सुलभ नहीं. इसीलिए वह उभयपक्षीय आर्थिक संबंधों तथा दूरदर्शी सामरिक सहमति को अलग करने की बात सोच सकता है. भारत के लिए पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव के माहौल में इस जटिल चुनौती का सामना करना आसान नहीं.

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