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दहेज विरोधी कानून पर एक अच्छी पहल

किसी मसले पर कानून का होना सिर्फ इस बात का सूचक नहीं कि उस पर विधि-पूर्वक न्याय-निर्णय दिया जा सकेगा, बल्कि वह अपने आप में एक नैतिक बयान भी होता है. एक नैतिक बयान के रूप में कानून इस बात का संकेत देता है कि राज्यसत्ता ने अपनी तरफ से किसी मसले की अच्छाई-बुराई को […]

किसी मसले पर कानून का होना सिर्फ इस बात का सूचक नहीं कि उस पर विधि-पूर्वक न्याय-निर्णय दिया जा सकेगा, बल्कि वह अपने आप में एक नैतिक बयान भी होता है. एक नैतिक बयान के रूप में कानून इस बात का संकेत देता है कि राज्यसत्ता ने अपनी तरफ से किसी मसले की अच्छाई-बुराई को सीमित अर्थो में देखा है या विस्तृत अर्थो में.

इस कोण से देखें, तो दहेज विरोधी कानून की मूल कोशिश समाज में स्त्री को ‘अबला’ बनानेवाली स्थितियों को पहचानने की है. दहेज विरोधी कानून मान कर चलता है कि किसी नव-ब्याहता को अबला बनानेवाली स्थितियों का केंद्र परिवार (ससुराल पक्ष) होता है और उसके सदस्य पति, सास-ससुर, देवर-ननद आदि अपने परंपरागत अधिकार-भेद से नव-ब्याहता स्त्री को ‘अबला’ महसूस कराने की स्थितियां रचते हैं. ऐसी स्थितियों का एक जघन्य रूप दहेज-उत्पीड़न है. इस अर्थ में दहेज उत्पीड़ित स्त्री के साथ तभी न्याय हुआ माना जायेगा, जब उसे अबला बनानेवाली पारिवारिक स्थितियों को जिम्मेवार मान उसके अनुकूल न्याय-निर्णय किया जाये. इसी कारण, दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून में उत्पीड़न की स्थितियां रचनेवाले परिवार-जन के लिए गैर-जमानती गिरफ्तारी का प्रावधान है.

अब यह देखते हुए कि दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग हो रहा है, सुप्रीम कोर्ट ने एक नयी व्यवस्था दी है कि दहेज से जुड़े मामलों में पति और उसके रिश्तेदारों की गिरफ्तारी तभी की जाये, जब ऐसा करना न्याय-निर्णय के लिहाज से अत्यंत जरूरी हो. इससे लग सकता है कि दहेज उत्पीड़न के कानून में अंतर्निहित सख्ती तनिक ढीली पड़ जायेगी, लेकिन यह आशंका निमरूल है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कानून की मूल भावना को जस का तस रखा है.

दहेज-उत्पीड़न में परिवार-जन की केंद्रीय भूमिका की बात कोर्ट की नयी व्यवस्था से रद्द नहीं होती. हां, पुलिस पर ऐसे मामलों में सतर्कता से काम करने का जरूरी दबाव अवश्य बढ़ गया है, क्योंकि अब दहेज-उत्पीड़न में आरोपित की गिरफ्तारी का कारण भी पुलिस को दर्ज करना होगा और इसकी मजिस्ट्रेट के आगे परीक्षा भी होगी. यह स्वागत-योग्य व्यवस्था है, क्योंकि एक तो कानून के मूल भाव की रक्षा हुई, दूसरे यह भी सुनिश्चित हुआ कि दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग न हो सके.

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