भारत फिर से एक श्रेष्ठ विद्या राष्ट्र बने
।। तरुण विजय ।। राज्यसभा सांसद, भाजपा विश्व के 37 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है, लेकिन भारत में संस्कृत का अपमान हो रहा है. जैसे हिंदी और अंगरेजी के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बने हैं, बार-बार मांग किये जाने के बावजूद संस्कृत का एक भी विश्वस्तरीय संस्कृत विश्वविद्यालय नहीं है. गुरु पूर्णिमा […]
।। तरुण विजय ।।
राज्यसभा सांसद, भाजपा
विश्व के 37 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है, लेकिन भारत में संस्कृत का अपमान हो रहा है. जैसे हिंदी और अंगरेजी के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बने हैं, बार-बार मांग किये जाने के बावजूद संस्कृत का एक भी विश्वस्तरीय संस्कृत विश्वविद्यालय नहीं है.
गुरु पूर्णिमा का उत्सव पूरे देश में मनाया जाता है, जब करोड़ों लोग आचार्यो के प्रति आदर अर्पित करते हुए अधिक से अधिक श्रेष्ठ विद्या के अर्जन की कामना करते हैं. लेकिन जैसे बिजली का उत्पादन स्वयं में स्वतंत्र उद्देश्य नहीं हो सकता, जब तक कि उसका समाज के व्यापक हितों के लिए उपयोग न हो, उसी तरह यदि विद्या का समाज, धर्म और राष्ट्र के लिए उपयोग न हो तो वह व्यर्थ है. आज प्रश्न किया जा सकता है कि भारत के विश्वविद्यालयों तथा उच्च प्रौद्योगिकी संस्थानों का अपने आसपास की सामाजिक, आर्थिक और आम तकनीकी समस्याओं के समाधान में कितना योगदान है?
देश नदी, नालों, पहाड़ों और भीड़ का समुच्चय मात्र नहीं है. वैसे ही विद्यालय अक्षर ज्ञान, गणित और भूगोल की पुस्तकों मात्र से नहीं बनता. जैसे गंगा सिर्फ जल नहीं, वैसे ही विद्यालय सिर्फ परीक्षा पास करने के केंद्र नहीं. चीन, जापान, अमेरिका और कोरिया जैसे देशों की प्रगति के पीछे उनके आचार्यो व छात्रों का योगदान बहुत बड़ा, बल्कि अग्रणी है.
भारत आज उस स्थिति में पहुंचा है, जब वह विश्व स्तर पर विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा कला का केंद्र बन सकता है. पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक पूरे भारत में विज्ञान और तकनीकी के संस्थान खुले हैं, लेकिन स्तर बहुत कम और वैश्विक ढांचे में वे कहीं जमते नहीं. सबसे बड़ी आवश्यकता इस समय विज्ञान और नयी खोज के क्षेत्र में विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देना है. विश्वविद्यालय राजनीतिक नियुक्तियों, भ्रष्टाचार और अफसरशाहों के घटिया शिकंजे में फंसे हुए दिखते हैं. छात्रों और अध्यापकों का अधारभूत ज्ञानसिंचन रुक गया है.
वरिष्ठ अध्यापक और आचार्य कक्षाओं को छोड़ कर स्थानीय राजनीति में वक्त बिताते हैं अथवा कोचिंग क्लासेज में जाते हैं. पाठ्यक्रमों का समसामयिक वास्तविकताओं और ऐतिहासिक घटनाक्रमों की दृष्टि से नवीनीकरण नहीं किया जाता. प्रयोगशालाओं में आवश्यक उपकरण नहीं मिलते. जब तक ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों को स्वायत्ता नहीं मिलेगी, तब तक परिणाम केवल निम्नस्तरीय ही मिलेंगे.
उच्च शिक्षा का बोर्ड लगाने मात्र से शिक्षा उच्च नहीं हो जाती. इसलिए,
1- नये विचारों तथा प्रयोगों को आगे बढ़ाते हुए अनुसंधान के लिए चुने हुए दो सौ महाविद्यालयों को स्वायत्ता देकर उन्हें विशेष महत्व देते हुए युवाओं को एक नये रोमांच और विद्या स्तर पर पहुंचाने का प्रयास किया जाना चाहिए. 2- श्रेष्ठतम पांच प्रतिशत विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं इंजीनियरिंग संस्थानों को नये पाठ्यक्रम प्रयोग और भारत की नवीन वास्तविकताओं एवं आवश्यकताओं को अपने केंद्र में अध्ययन एवं उसके बाद समाधान हेतु योगदान के लिए सिद्ध किया जाये. उदाहरण के लिए उत्तराखंड में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान स्थापित है, लेकिन उत्तराखंड के आपदाराहत एवं पर्वतीय अंचल के विकास में उसकी सक्रिय सहभागिता अनिश्चित ही रहती है.
3- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अतीतकालीन जीवाश्म का रूप ले चुका है, जहां न तो छात्रों और शोधरत उच्चतर श्रेणी के आचार्यो को कभी समय पर छात्रवृत्ति या फेलोशिप मिलती है और न ही शिक्षा जगत की वास्तविकताओं को वह अभिव्यक्त करता है. यहां राजनीति और सिफारिश अधिक, विद्या और ज्ञान का नवीन रूप कम दिखता है. इसके ढांचे में 2014 से 2050 तक की वास्तविकताओं के अनुरूप परिवर्तन अथवा इसके स्थान पर एक नवीन उच्च विद्या अधिकरण स्थापित किया जाना चाहिए, जो वर्तमान विश्वविद्यालयों को शक्ति एवं स्वतंत्रता देने का कार्य कर सके.
4-विभिन्न औद्योगिक संस्थानों तथा केंद्रीय शोध एवं विकास संस्थानों जैसे सीएसआइआर, आइसीएमआर, आइसीएआर और डीआरडीओ का विश्वविद्यालयों में अधिक दखल और साझेदारी प्रोत्साहित की जानी चाहिए.
जिस प्रकार के विशेषज्ञ और इंजीनियर उन्हें चाहिए, उसके अनुरूप यदि शिक्षा का पाठ्यक्रम ढाला जाता है, तो डिग्री लेने से पहले ही छात्र अपना गंतव्य तय कर चुका होगा.
5- राष्ट्रीय निपुणता विकास आयोग द्वारा स्नातक स्तर तक की शिक्षा को निपुणता और कुशलता बढ़ाने के साथ जोड़ने के लिए कृषि केंद्रित उद्योग, बैंकिंग, वित्तीय सेवाएं तथा बीमा (बीएफएसआइ), पर्यटन, यात्रएं तथा आतिथ्य (होटल तथा अतिथिशालाओं का उद्योग), हीरे और जवाहरात, सूचना-प्रौद्योगिकी, मीडिया, मनोरंजन जैसे क्षेत्रों का चयन किया गया है. इन क्षेत्रों में युवा जाने लिए तत्पर रहते हैं. समूचे पूर्वाचल के छात्र और युवा आज आतिथ्य और पर्यटन के क्षेत्र में बहुत तीव्रता से आगे बढ़े हैं. निपुण और कुशल युवाओं की बड़ी संख्या तैयार करने के लिए शिक्षा संस्थानों को माध्यमिक एवं स्नातक के स्तर से ही इन उद्योगों से जोड़ते हुए भारत में एक नयी कौशल क्रांति लायी जा सकती है.
सबसे बड़ी बात है शिक्षा क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्देश्य प्रतिष्ठित करना. क्यों और किसके लिए शिक्षा ग्रहण की जा रही है, उसका अंतिम उद्देश्य क्या है? क्या केवल अक्षरों को रट कर अंकों के रेगिस्तान में भवानी भारती की गौरवोज्ज्वल प्रतिमा स्थापित की जा सकती है? यदि ऐसा होता, तो सोवियत संघ न टूटता और न ही पश्चिमी पाकिस्तान से बांग्लादेश अलग होता. आज शिक्षा क्षेत्र में संस्कृत को समाप्त करने का षड्यंत्र किया जा रहा है. लंदन के सेंट जेम्स स्कूल के अलावा विश्व के 37 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है, लेकिन भारत में संस्कृत का अपमान किया जाता है. जिस प्रकार से हिंदी और अंगरेजी के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बने हैं, संस्कृत के लिए बार-बार मांग किये जाने के बावजूद एक भी विश्वस्तरीय संस्कृत विश्वविद्यालय नहीं है. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जैसे संस्कृत के प्रति समर्पित केंद्र अपनी संस्कृत नाटय़शाला तक बचाने के लिए जूझ रहे हैं. संघ लोकसेवा आयोग भारत की राष्ट्रभाषा को परीक्षाओं के लिए तिरस्कृत करता है और नौजवान, जो भारतीय भाषाओं में पढ़े-लिखे हैं, सड़कों पर आकर रोते हैं. अंगरेजी सीखनी चाहिए, लेकिन उसका अर्थ अंगरेजीयत नहीं हो सकता. आज तो हिंदी के अखबार भी अंगरेजी के अस्वीकार्य प्रयोग कर रहे हैं और ऐसा लगता है कि हिंदी के अखबार सिर्फ बाजार से पैसा लेने के लिए हिंदी में निकल रहे हैं.
विद्या के बल पर भारत ने संपूर्ण विश्व को प्रकाश दिया, ज्ञान-विज्ञान, गणित और कला का सहस्त्रब्दियों तक अक्षुण्ण रहनेवाला अवदान दिया. अब समय आ गया है कि भारत पुन: आगे बढ़े, औपनिवेशिक दास मानसिकता से बाहर निकल कर नयी पहल और नये रोमांच के साथ विद्या राष्ट्र बने.