मॉनसून से उम्मीदें
कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार है और इसका उत्पादन मॉनसून पर निर्भर करता है. मॉनसून में थोड़ा विचलन न केवल खेती, बल्कि समूचे आर्थिक तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है. वर्ष 2014 और 2015 के निरंतर सूखे ने बड़ी संख्या में किसानों को दरिद्रता और कर्ज के भंवर में फंसा दिया था. इस […]
कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार है और इसका उत्पादन मॉनसून पर निर्भर करता है. मॉनसून में थोड़ा विचलन न केवल खेती, बल्कि समूचे आर्थिक तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है.
वर्ष 2014 और 2015 के निरंतर सूखे ने बड़ी संख्या में किसानों को दरिद्रता और कर्ज के भंवर में फंसा दिया था. इस अवधि में किसानों की आत्महत्या में 42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी. उस भयावह सूखे की बड़ी वजह मजबूत अलनीनो था. परंतु वर्ष 2017 और 2018 में औसत वर्षा 95 से 91 प्रतिशत रही, जो दीर्घावधि औसत में सामान्य रही. भारतीय मौसम विज्ञान संस्थान ने मौजूदा वर्ष में मॉनसून के स्वस्थ रहने का अनुमान लगाया है और उम्मीद जतायी है कि इस वर्ष अलनीनो का असर बहुत नहीं होगा.
प्रशांत महासागर की सतह के गर्म होने की प्रक्रिया से उत्पन्न होनेवाला अलनीनो भारत समेत समूचे दक्षिण एशिया के साथ ऑस्ट्रेलिया को भी भयंकर सूखे की चपेट में ले लेता है. अप्रैल के मध्य में इस वर्ष के मॉनसूनी बारिश पर पहला आधिकारिक अनुमान जारी होगा, तब तस्वीर अधिक स्पष्ट हो पायेगी. गर्मी के महीनों में देश के विभिन्न हिस्सों में जल संकट गहरा जाता है. झारखंड, दक्षिणी आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु के उत्तरी हिस्से में जल संकट उभरने के लक्षण दिखने लगे हैं.
जिस तेजी से भूजल स्तर में गिरावट आ रही है. इसका प्रभाव कृषि पर भी पड़ेगा. चूंकि देश की आधी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है, तो उसकी चिंताएं और समस्याएं बढ़ेंगी. सिंचाई की संतोषजनक व्यवस्था नहीं होने के कारण बड़ी संख्या में किसानों के पास मॉनसून निहारते रहने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है. यही वजह है कि चावल, गन्ना, कपास, सोयाबीन और मक्का किसानों के लिए मॉनसून की पहली बारिश पानी से अधिक राहत बरसाती है.
मॉनसून पर टिकी कृषि के लिए अब जलवायु-संवेदनशील बजटीय प्रावधान हो तथा नहरों की अत्याधुनिक संरचना और प्रबंधन के प्रयास हों. जलवायु-स्मार्ट कृषि प्रणाली के विकास और स्थानीय स्तर पर किसानों के लिए मौसम की स्थिति की अग्रिम चेतावनी एवं जानकारी देने की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए. सूखा प्रभावित या कम जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों में दलहन व तिलहन फसलों की खेती को बढ़ावा देना भी एक उपाय हो सकता है.
नदियों के प्रदूषण और उनमें पानी कम होने की समस्या भी गंभीर है. सिंचाई, पेयजल, भूजल और पारिस्थितिकी की जरूरतों को पूरा करने के लिए नदियों और जलाशयों के संबंध में एक दीर्घकालिक रणनीति पर विचार होना चाहिए. मॉनसून से जुड़ी हुई एक मुश्किल जलवायु परिवर्तन भी है, जिसके कारण प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं.
देशव्यापी मॉनसून का औसत सामान्य या बेहतर रहने की स्थिति में भी कहीं बाढ़ और कहीं सूखे का सामना करना पड़ता है. ऐसे में संतुलित तात्कालिक और सुदीर्घ प्रयासों की बड़ी आवश्यकता है.