संवैधानिक अधिकारों के रक्षक
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com आगामी कुछ ही महीनों में एक बड़े गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के प्रमुख के रूप में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जायेगा. मैंने सोचा कि मुझे इस क्षेत्र के बारे में लिखना चाहिए और अपने सुधी पाठकों को बताना चाहिए कि पिछले चार वर्षों तक यहां काम करने के […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
आगामी कुछ ही महीनों में एक बड़े गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के प्रमुख के रूप में मेरा कार्यकाल समाप्त हो जायेगा. मैंने सोचा कि मुझे इस क्षेत्र के बारे में लिखना चाहिए और अपने सुधी पाठकों को बताना चाहिए कि पिछले चार वर्षों तक यहां काम करने के दौरान मैंने क्या-क्या सीखा और क्या-क्या पाया.
पहली बात, आम लोगों के हितों से जुड़े नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) में काम करनेवाले लोगों की विशेषता के बारे में है. इनको कार्यकर्ता कहा जाता है और उनके संगठन को प्राय: एनजीओ (नॉन-गवर्नमेंटल ऑर्गेनाइजेशन) कहा जाता है.
मैंने देखा है कि कुछ बेहद प्रतिभाशाली भारतीय इस काम के प्रति आकर्षित रहते हैं और हमें इस बात को लेकर गर्व महसूस करना चाहिए. एनजीओ में जो भी वेतन दिया जाता है, वह कॉरपोरेट दुनिया में मिलनेवाले वेतन के आसपास भी नहीं है और यह सब इसलिए भी इसे उल्लेखनीय बनाता है, क्योंकि इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली युवा काम करते हुए दिखते हैं.
दूसरी बात उस काम की प्रकृति के बारे में है, जो एनजीओ के कार्यकर्ता करते हैं. आपके पास ऐसे लोग हैं, जिन्होंने मैला साफ करनेवालों या शारीरिक विकलांगता या प्राथमिक शिक्षा जैसे मुद्दों पर दशकों तक काम किया है.
बेशक यह एक आदर्श और अर्थपूर्ण काम है. लेकिन इसका दूसरा पहलू, कह सकते हैं कि महत्वपूर्ण पहलू, यह भी है कि ऐसे लोगों के पास वह विशेषज्ञता और समझ होती है, जो सरकार समेत किन्हीं अन्य जगहों पर दिखायी नहीं देती.
यही वह बात है, जो मुझे तीसरे बिंदु पर ले आती है और वह यह है कि भारत में ऐसे व्यक्तियों और संस्थाओं का सरकार के साथ काम करना आसान नहीं होता है. भारत में राज्य, जिसका अर्थ है नौकरशाही और राजनीतिक लोग, बेहद बंद दिमाग के और आम तौर पर अभिमानी हो जाते हैं.
यहां नागरिकों के साथ उनके संबंध मालिक-नौकर जैसे हैं, यहां तक कि अगर किसी नागरिक ने उस मुद्दे पर नौकरशाह से कहीं ज्यादा लंबे समय तक काम किया हो, तब भी. चूंकि मैं एक ऐसे संगठन के लिए काम करता हूं, जाे वैश्विक है, तो मैं यह जानकारी दे सकता हूं कि दूसरे लोकतंत्रों में, खासकर यूरोप में, सिविल सोसायटी के साथ राज्य का संबंध भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा करीबी है. उन देशों में गैर सरकारी संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये कार्यों को बहुत सम्मान मिलता है, जबकि हमारे देश में ऐसे व्यक्तियों व समूहों को आमतौर पर अवरोधक ही माना जाता है.
चौथी बात, जो लोगों को पता नहीं है या वे मानतेे हैं कि ये कार्यकर्ता या एनजीओ तभी मूल्यवान कार्य कर पाते हैं, जब वास्तव में सरकार उनके साथ जुड़ी होती है.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने सिविल सोसायटी के लोगों के साथ एक समूह का गठन किया था, जिसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) कहा जाता था. इस समूह के सभी लोग सामाजिक कार्यकर्ता और एनजीओ वाले थे. इन लोगों ने सरकार से सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ) एवं ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और ऐसे ही अन्य कानून एवं योजनाएं बनाने को कहा.
आज देश में ये दोनों अपना काम बखूबी कर रहे हैं. अगर ये कानून अब भी हैं और लोकप्रिय भी बने हुए हैं, तो यह कार्यकर्ताओं की उस सोच का परिणाम है, जिसमें सरकार सक्षम नहीं है. मेरे दिमाग में इस बात को लेकर कोई प्रश्न नहीं है कि सूचना का अधिकार जैसी चीजें परिवर्तनकारी हैं. अपने मत के साथ-साथ सूचना का अधिकार एक सामान्य महिला के लिए सर्वाधिक शक्तिशाली हथियार है.
पांचवी बात यह है कि ये कार्यकर्ता और एनजीओ मध्य वर्ग और गरीब वर्ग के बीच मौजूद खाई को पाटने का काम करते हैं. ट्रैफिक सिग्नल पर भिखारी को देख कर कार के शीशे ऊपर चढ़ाना मध्य वर्ग के लिए आसान है.
हम इन्हीं नितांत एकाकी लोगों के लिए काम करते हैं. किसान आत्महत्या और कृषि संकट के बारे में हममें से अधिकतर लोगों को मतलब नहीं है, क्योंकि सच्चे अर्थों में उसकी वास्तविकता से हम परिचित ही नहीं हैं. हालांकि, ये कार्यकर्ता और एनजीओ मध्य वर्ग के सदस्य ही हैं, जिनका इन गैर मध्य वर्ग से जुड़े मुद्दों के साथ व्यक्तिगत और निरंतर संपर्क रहता है. यह चीज हमें अन्य भारतीयों के साथ जोड़े रखने में सक्षम है.
छठी बात में वे सारे मुद्दे शामिल हैं, जिन्हें लेकर अधिकांश भारतीय अपनी राय बनाते हैं, कार्यकर्ताओं और एनजीओ के पास उससे संबंधित सूक्ष्म जानकारियां होती हैं.
हमारी मुख्यधारा की मीडिया की प्रकृति के कारण आदिवासी अधिकारों या दलित अधिकारों को लेकर हमें बहुत सीमित जानकारी प्राप्त होती है. जब हम कश्मीर मुद्दे पर आते हैं, तो हमारे पास एकतरफा कहानी होती है. पूर्वोत्तर की हिंसा और इसके कारण को लेकर हमारी समझ ठीक नहीं है. हालांकि, हममें से ज्यादातर के मुकाबले कार्यकर्ता और एनजीओ इन मुद्दों से ज्यादा गहराई से जुड़े हुए हैं.
यहां एक उदाहरण दिया जा रहा है, जिनके बारे में आप नहीं जानते होंगे: वर्ष 2012 में, इइवीएफएएम नामक एक एनजीओ ने उच्चतम न्यायालय में कहा कि सुरक्षा बलों द्वारा मणिपुर में की गयी मुठभेड़ फर्जी थी.
अदालत ने कुछ न्यायाधीशों को इस मामले की छान-बीन का आदेश दिया और पाया कि वह एनजीओ सही था. उसके बाद से तो मणिपुर में होनेवाली मुठभेड़ और हत्याएं 200 की बड़ी संख्या से गिर कर मुट्ठीभर रह गयीं, क्योंकि सशस्त्र बलों को यह पता चल गया था कि उनकी निगरानी की जा रही है. सामान्य मीडिया से आपको इस तरह की जानकारी नहीं मिल पायेगी.
यह तो एनजीओ और कार्यकर्ता ही हैं, जो संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित रखे हुए हैं. एक लोकतांत्रित राष्ट्र में बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों की उपस्थिति की जरूरत होती है, जो समाज पर प्रभाव डालनेवाले मुद्दों पर काम करते हैं.
हममें से अधिकतर लोग उन चीजों में दिलचस्पी नहीं लेते हैं, जो हमें सीधे तौर पर प्रभावित नहीं करती हैं, या जिनसे हम आसीन से प्रभावित नहीं होते हैं. इसलिए हमें उन लोगों का समर्थन करना चाहिए, जो हम सभी के लिए सही मुद्दों पर कार्य करते हैं, तब भी जब उनकी कही कुछ बातों से कई बार हम असहमत होते हैं.