संवाद चाहिए, विवाद नहीं
प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com सदियों से विभिन्न विडंबनाओं ने भारत को एक ऐसे अनोखे देश के रूप में परिभाषित किया है, जहां अतीत तथा वर्तमान में तवज्जो पाने की होड़ लगी रहती है. भारत विश्व का सबसे युवा देश होते हुए भी वर्ष 2020 तक दूसरा ऐसा देश बनेगा, […]
प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
सदियों से विभिन्न विडंबनाओं ने भारत को एक ऐसे अनोखे देश के रूप में परिभाषित किया है, जहां अतीत तथा वर्तमान में तवज्जो पाने की होड़ लगी रहती है. भारत विश्व का सबसे युवा देश होते हुए भी वर्ष 2020 तक दूसरा ऐसा देश बनेगा, जो साठोत्तर वर्ष की उम्र हासिल कर चुका होगा.
इसके बावजूद, इसके सियासतदानों में सहमति की नहीं, संघर्ष की प्रवृत्ति ही हावी है. नयी पीढ़ी का कोई भी नेता सद्भावनाभरे भारत की अथवा किसी सकारात्मक एजेंडे की पैरोकारी नहीं करता. उनकी भाषा से सुशासन के सिद्धांतों की सुगंध नहीं उठती. इन सबकी बजाय, वे जाति, समुदाय, आरक्षण, मंदिर तथा लोकलुभावन मुद्दों की बातें करते ही नजर आते हैं.
नब्बे करोड़ मतदाताओं के साथ विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र विचारों एवं प्रतिविचारों का मंच नहीं बन सका है. यहां महान सैद्धांतिक विचारों का कोई स्मरणीय शास्त्रार्थ देखने को नहीं मिलता.
चढ़ते चुनावी तापमान के साथ ही बदले की भावना परस्पर गाली-गलौज में बदल चुकी है, जहां सभी सियासी पार्टियों के नेता अपने विपक्षियों को सर्वाधिक निकृष्ट बताने में व्यस्त हैं. जहां कांग्रेसी नेता मोदी को मसूद अजहर, ओसामा, दाऊद और आइएसआइ का घालमेल बता रहे हैं, कांग्रेस अध्यक्ष ने भाजपा के नारे की खिल्ली ‘चौकीदार चोर है’ कहकर उड़ायी है, वहीं मोदी ने इसके कुछ सप्ताह बाद मेरठ में अपनी पहली चुनावी सभा में सपा-आरएलडी-बसपा गठबंधन को ‘सराब’ यानी शराब की संज्ञा दे डाली.
जबसे 17वीं लोकसभा के लिए आम चुनावों की घड़ी निकट आयी है, सभी राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा छोटी सियासी पार्टियां एक-दूजे के साथ दुर्वचनों की स्पर्धा में लग चुकी हैं.
मुद्दों तथा आदर्शों की बात न तो कार्यकर्ताओं और न ही नेताओं की कोई जमात कर रही है. शायद ही कोई पार्टी या नेता है, जो किसी कटुतापूर्ण कथ्य की डोर थामे नहीं बैठा है. कहीं भी शुभता अथवा सदाशयता के नहीं, बल्कि हर कहीं बुरे और विद्रूप के ही दर्शन हो रहे हैं. संवाद का अभाव इस हद तक पहुंच चुका है कि सियासी विरोधियों ने एक-दूसरे से परस्पर सामाजिक संपर्क तोड़ डाले हैं और वे ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक एवं व्हाॅट्सएप के जरिये दुश्मनियां निकालते हैं.
जिस पल कोई महिला सियासी अखाड़े में कदम रखती है, वह तत्काल एक विषैले व्यक्तिगत आक्रमण का निशाना बन उठती है. प्रियंका गांधी की चमड़ी के रंग का मजाक बनाया गया. जब उर्मिला मातोंडकर ने सक्रिय राजनीति में अपने कदम रखे, तो उनके चरित्र की कटु आलोचना की गयी.
यहां तक कि जयाप्रदा जैसी अनुभवी सियासतदां को भी नहीं बख्शा गया. अपनी पार्टियों में उच्च पदों के आकांक्षी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए दुर्वचनों की कला में महारत हासिल करना ही उन्हें उनके नेताओं की निगाहों में चढ़ाता है और वाहवाही दिलाता है. उन्हें मतदाताओं को आकृष्ट कर पाने की क्षमता के कारण नहीं, बल्कि अपने नेता के विरोधियों को लांछित करने के लिए ही पुरस्कृत किया जाता है.
कोलकाता से कालीकट और चंडीगढ़ से चेन्नई तक लोकलुभावन बयानबाज सड़कों पर सब्जियां बेचनेवालों की तरह अपनी पार्टियों की बोली लगाते फिर रहे हैं.
इन सियासी योद्धाओं के कथ्य, स्वर एवं सार से सैद्धांतिक शिक्षा का स्पष्ट अभाव परिलक्षित होता है. उनके शब्दों से उनकी उपलब्धियों अथवा विरासत की बू नहीं आती, उनकी शब्दावलियों से भारत के विकासपरक भविष्य के दर्शन नहीं होते. जब से इन चुनावों के बिगुल बजे हैं, नरेंद्र मोदी तथा राहुल गांधी ने एक-दूसरे पर निजी आक्रमणों के तीर छोड़े हैं. विडंबना है कि दोनों के पास एक सुपर पावर के रूप में भारत के विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धताओं के रूप में कहने को बहुत कुछ है.
मोदी ने अपने कई सारे वायदे पूरे कर दिखाये हैं और वे उचित ही यह दावा कर सकते हैं कि उनकी सरकार ने पिछले पांच वर्षों के दौरान कांग्रेसी सरकारों के पिछले साठ सालों की अपेक्षा कई अहम क्षेत्रों में आशातीत उपलब्धियां हासिल की हैं. फिर भी उन्हें यह यकीन है कि आम चुनाव प्रगति के संख्यात्मक साक्ष्यों से नहीं, बल्कि वाकयुद्धों के बूते जीते जाते हैं.
हालांकि, यूपीए सरकारों के लांछित अतीत का भूत कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा, लेकिन इसके अध्यक्ष उनकी पार्टी के ही शासन काल में आधुनिक भारत के उदय की बातें तो कर ही सकते हैं. वे यह भी दावा कर सकते हैं कि उनकी दादी और पिता एक समावेशी भारत के विचारों की रक्षा करते हुए शहीद हुए. इसके बावजूद, मोदी के विरुद्ध उनका उत्तेजनामय व्यक्तिगत हमला लगातार जारी है. इन दोनों नेताओं की भंगिमाएं और भाषा से यह संकेत तो मिलता ही है कि वे विनम्रता की हदें लांघ रहे हैं.
हमारी चुनावी बहसें कैसे इतने निम्न स्तर तक उतर आयी हैं? क्या इसकी वजह कोई जनसांख्यिक बदलाव है? क्या नये भारत में तारीफ हासिल करने हेतु मुकाबले और तिरस्कार की संस्कृति का समर्थन किया जाता है? नेहरू, शास्त्री, नंबूदिरीपाद, लोहिया, इंदिरा, दीन दयाल उपाध्याय, वाजपेयी, ज्योति बसु, चंद्रशेखर, नरसिंह राव आदि के भारत में बुरे से बुरे वक्त में भी सद्भावपूर्ण संस्कृति का निर्वाह करते हुए राष्ट्रीय जुड़ाव का संरक्षण किया जाता था.
वे एक-दूसरे पर सवाल जरूर उठाते थे, पर उनकी निष्ठा पर कभी संदेह नहीं करते थे. कुछ समाजशास्त्रियों के अनुसार भारतीय राजनीति में असामान्य आक्रामकता के लिए भारतीय जनसंख्या की परिवर्तित प्रकृति जिम्मेदार है, जिसमें 65 प्रतिशत से भी अधिक आबादी 35 वर्षों से कम उम्र की है और यहां का युवा नेतृत्व युवाओं को रास आती शैली में संवाद कर उसे प्रभावित करना चाहता है.
दूसरी वजह यह हो सकती है कि आज के युवा नेतृत्व की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि उसके पूर्ववर्तियों से भिन्न है. इसके अलावा, पिछले दशकों के दौरान सियासी प्रतिद्वंद्वियों के बीच सामाजिक संपर्क समाप्त हो चले हैं. पहले उन्हें सदन में लड़ने के बाद साथ बैठ खाने-पीने से गुरेज नहीं था, पर आज नेताओं अथवा मुख्यमंत्रियों के बीच अनौपचारिक भोज-मुलाकातें अनसुनी ही हैं, क्योंकि प्रायः उनके सियासी निहितार्थ तलाश लिये जाते हैं.
विविधता के बीच एकता की भारतीय विचित्रता आज खतरे में है. यदि विभिन्न पार्टियां किन्हीं न्यूनतम कार्यक्रमों पर सहमत नहीं हो सकतीं, तो कम-से-कम उन्हें संवादों की एक सभ्य संहिता तो विकसित करनी ही चाहिए. लोकतंत्र संवादों से चलता है, अपशब्दों से नहीं.
(सौजन्य: द न्यू इंडियन एक्सप्रेस)