ध्यान में रहे भारत का हित

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mri- al.pa- de@gmail.com बालाकोट के बाद का लगातार उन्माद से भरा चुनावी मंजर राजनेताओं के मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए दिलचस्प मसाला है. ‘चुन-चुन के बदला लेंगे’ और ‘घर में घुसकर मारूंगा’ वाले बयानों ने सोचे-समझे बगैर भारत और पाक ही नहीं, भारत-पाक एवं चीन, भारत-पाक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 5, 2019 8:01 AM
मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल
एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mri- al.pa- de@gmail.com
बालाकोट के बाद का लगातार उन्माद से भरा चुनावी मंजर राजनेताओं के मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए दिलचस्प मसाला है. ‘चुन-चुन के बदला लेंगे’ और ‘घर में घुसकर मारूंगा’ वाले बयानों ने सोचे-समझे बगैर भारत और पाक ही नहीं, भारत-पाक एवं चीन, भारत-पाक एवं अमेरिका के रिश्तों के कई उत्पाती प्रेतों को आजाद कर दिया है.
भारतीय राजनय के स्वरूप, पड़ोसी रिश्तों, महाशक्तियों की छुपी इच्छाओं और इरादों से गढ़ी जा रही एशियाई बिसात की रणनीतियों पर भी इसका कुप्रभाव पड़ रहा है.
जिस एक बात पर दो विश्वयुद्धों से झुलस चुकी दुनिया एकमत है, वह यह है कि परमाणु शक्ति वाले दो देशों के बीच युद्ध छिड़ना या तनावभरी स्थिति में भड़काऊ तरह से घी डालना विश्वभर के लिए खतरा है. इसलिए बालाकोट की आग पर ढक्कन लगाने को तुरंत सारी दुनिया हरकत में आ गयी और सेनाधिपति कगार से पीछे हट गये.
सवाल है कि ऐन चुनावी संध्या पर पाकिस्तान भला भारत की सीमा पर बार-बार हंगामा क्यों मचा रहा है? इसकी बड़ी वजह है एशिया पर एकछत्र राज्य करने के इच्छुक चीन की दीर्घकालिक नीतियां. चीन की विदेश नीति में दर्शन और खुराफात का एक अजीब मिश्रण है.
उसने ताओ से माओ तक दर्शन का पारायण करके अपने अगली सदी के भूराजनीतिक लक्ष्य तय किये हैं, जिनमें भारत के खिलाफ जरूरत पड़ने पर पाकिस्तान को अपनी मिसाइल बनाना शामिल है. चीन ठोस खुर्राट और व्यावहारिक बनकर पाक धरती पर अपने व्यापारिक सामरिक हितों के तहत सड़कों से लेकर बंदरगाह तक बनाने के कार्यक्रम पर चुस्ती से अमल कर रहा है.
हमारा मामला उल्टा है. हमारे नेता दूरगामी फल की चिंता किये बिना फौरी चुनावी जरूरतों से ही लक्ष्य तय कर हमले पर उतारू हो जाते हैं. राष्ट्रवादी भाषणों की आग से शुरुआत होती है. यहां तक तो तब भी ठीक है. दिक्कत तब शुरू होती है, जब प्रधान सेवक ही देश के हर सूबे में पाक और अल्पसंख्यकों के खिलाफ उन्माद जगाते जनता को हिंसक संदेशों से उकसाते हैं.
हमको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि आज आतंकवाद के खिलाफ खुला युद्ध छेड़कर पाक से सामरिक टकराव मोल लेना चीन को हस्तक्षेप के लिए न्योतना साबित होगा. इस क्रम में हमको रूस के पारंपरिक समर्थन की आस भी नहीं पालनी चाहिए. हम नहीं मान सकते कि चीन के बूते पाक अगर हम पर हमलावर हुआ, तो उसके खिलाफ हमको ट्रंप का नस्लवादी, संकुचित घरेलू स्वार्थों का रक्षक बनता जा रहा अमेरिका रक्षा की गारंटी देगा. उसके खुद अपने खरबों डाॅलर चीन में निवेशित हैं.
आज युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद सरकार की घरेलू और वैदेशिक नीतियों की असफलता पर पर्दा डालने के हिंदुत्व की परंपरा के रक्षण का हिस्साभर है. बार-बार वही सतयुग-द्वापर युग के मुहावरों में सौ साल लड़ने, सर काट लाने, एक के बदले सवा सौ मारने की बातें बेरोजगारी, कृषि की बदहाली और छीजते पर्यावरण की ठोस सच्चाइयों से घिरे देश को न सिर्फ उबाती हैं, बल्कि उसकी उल्टी प्रतिक्रिया भी संभव है.
हमको अगले सौ-पचास सालों में तरक्की करनी है. इसके लिए विश्वविमुख बड़बोले आलसियों की जमात से बाहर आकर भारत की चिंताजनक सामाजिक आर्थिक सचाइयों पर जारी उन ठोस आंकड़ों का सच हमको स्वीकार करना होगा, जिनको हमारे अनुभवसंपन्न राष्ट्रीय शोध संस्थान सामने ला रहे हैं.
भारत और पाकिस्तान के बीच जो रिश्ता है, वह पिछले हजार बरस के भारतीय इतिहास से ही निकला है. इन रिश्तों का इतिहास जितना हमको खींचता है, उतना ही पाक को भी.
दोनों के बीच युद्ध हुआ तो वह ऊपरी तौर से भले ही अंतरराष्ट्रीय युद्ध होगा, पर एक गहरे मायने में वह एक गृहयुद्ध भी होगा, जो सीमा के आर-पार दोनों देशों में अंधी अराजकता को कस्बों-गलियों में बिखरा देगा. इतिहास का पेंडुलम भारत में बहुत कम घूमा है. हमारे यहां ऐसे शस्त्रास्त्र थे, ऐसे उड़नखटोले और मिसाइलें थीं, इस तरह की अवैज्ञानिक सबूतविहीन बातों पर बोलने के व्यावहारिक नतीजे क्या हैं? विदेशी अखबारों की शंकाएं इनकी खिल्ली उड़ रही हैं.
आज अगर सचमुच युद्ध हुआ, तो उन पांच हजार साल पुराने युद्ध के नुस्खों को हम क्या साकार कर सकेंगे? इसका जवाब शायद सिर्फ रहस्यवाद के लेवल पर दिया जा सकता है.
पर हथियारों की क्षमता, वाजिब कीमत या सेना की तैयारी से जुड़े वाजिब, व्यावहारिक सवालों को लेकर राजकीय असहिष्णुता हमारे राजनय की असफलता और एशिया में हमारा अकेलापन जताती है. क्या यह विडंबना नहीं कि जहां राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में निहत्थे नागरिकों को घर में घुसकर मारना नितांत संभव बनता जा रहा है? कश्मीर पर पिछले पांच बरसों में जुआ खेलते-खेलते 2019 में दांव कितने ऊंचे होते जा रहे हैं?
और चुनावी खेल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीयत से अगर पड़ोस पर हमला कर दिया गया, तो वह भारत के विश्व हितों को कितना नुकसान पहुंचा सकता है? सरकार से जरूरी सवाल पूछना आखिर क्यों मना हो?
हमको याद रखना चाहिए कि भारत-पाक युद्ध छेड़ने-रोकने की चाभी न भारत के पास है, न पाक के पास. वह बीजिंग, वाशिंगटन, मास्को और सऊदी अरब के हाथ में है.
जनसंपर्क और आत्म-प्रचार को हमारे नेतृत्व ने शुरुआती काल में चाहे जितना भी शिखर पर पहुंचाया हो, विदेशों में हर जगह उनकी छवि विराट और उजली बन जायेगी, ऐसा नहीं है. वैश्विक ताकत की बिसात पर अपने लिए जगह बनाते भारत को ऐसे दोस्त चाहिए, जिनसे उसके हित-स्वार्थों का मेल हो. हमारा भ्रम ही है कि दोस्तों की गरज सिर्फ पाक को है, हमको नहीं.
दुनिया के राजनय के अखाड़े में बड़ी ताकतें अंतत: देश विशेष की दोस्ती की कीमत उतनी ही लगायेंगी, जितना वह भीतर से शक्तिशाली हो.
इस समय जब विदेश की मुख्यधारा का मीडिया भारत को बार-बार सांप्रदायिक आग से झुलसते, बेरोजगारों और भ्रष्ट भगोड़ों वाला देश साबित करता हो, 108 शीर्ष अर्थशास्त्री खुद सरकार द्वारा अपने ही नकारात्मक आंकड़ों को झुठलाने पर चिंता जतायें, निवेशक हमको अपने सार्वजनिक बैंकों का दोहन करने का दोषी मानने लगें, उस समय उसकी तरफ दोस्तीभरे हाथ जरा कम ही बढ़ेंगे. चुनावों का क्या है, मई अंत तक सरकार तय हो ही जायेगी. लेकिन, इस समय युद्धोन्माद फैलाने की नादानी नयी सरकार को घरेलू तथा वैदेशिक, दोनो मोर्चों पर बहुत भारी पड़ेगी.

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