कार्बन का कोहरा

ज्ञान और विज्ञान में उत्कृष्ट प्रगति के साथ मनुष्य धरती को तबाह भी कर रहा है. पृथ्वी पर अभी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तीस लाख सालों में सबसे अधिक है. जिस भूवैज्ञानिक दौर में हम रह रहे हैं, उसकी उम्र भी इतनी ही है. जर्मन शोध संस्था पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट के अध्ययन के अनुसार, इस गैस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 8, 2019 5:45 AM

ज्ञान और विज्ञान में उत्कृष्ट प्रगति के साथ मनुष्य धरती को तबाह भी कर रहा है. पृथ्वी पर अभी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तीस लाख सालों में सबसे अधिक है. जिस भूवैज्ञानिक दौर में हम रह रहे हैं, उसकी उम्र भी इतनी ही है. जर्मन शोध संस्था पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट के अध्ययन के अनुसार, इस गैस में बढ़ोतरी का मुख्य कारण जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल है, जो वैश्विक ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है. कार्बन डाइऑक्साइड के साथ वातावरण में मिथेन की बढ़त भी बेहद चिंताजनक है.

धरती के तापमान को बढ़ाने में इन गैसों की सबसे बड़ी भूमिका है. इनके कारण हमारे ग्रह के वातावरण में गर्मी संचित होती रहती है. ये गैस बाहर से प्रकाश को आने देते हैं, पर गर्मी के एक हिस्से को निकलने से रोक देते हैं. लाखों सालों में पृथ्वी के औसत पूर्व-औद्योगिक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि नहीं हुई है, पर अब इस सीमा को लांघने की आशंका बढ़ गयी है.

यदि पर्यावरण और जलवायु को लेकर हमारी मौजूदा लापरवाही में बदलाव नहीं आया, तो आगामी 50 सालों में ही बढ़ोतरी दो डिग्री सेल्सियस की रेखा से पार चली जायेगी. नासा के मुताबिक धरती के सतह के औसत तापमान के लिहाज से पिछला साल बीते 140 सालों में सबसे अधिक रहा था.

ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्री जल-स्तर के बढ़ने, वनों के निरंतर क्षरण, वन्य जीवों के अस्तित्व पर संकट, प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता आदि के रूप में जलवायु परिवर्तन के खतरनाक नतीजे हमारे सामने हैं. तीस लाख साल पहले शुरू हुए वर्तमान भूवैज्ञानिक दौर में मानव सभ्यता की आयु मात्र 11 हजार साल ही है. ऐसे में जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वह बहुत गंभीर है. इन तथ्यों की स्पष्ट चेतावनी है कि हमें आपात स्तर पर तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के उपाय करने होंगे.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के पैंतरों के कारण जलवायु से जुड़े समझौते बेअसर हैं. देशों के बीच अर्थव्यवस्था को लेकर आत्मघाती प्रतिस्पर्धा चल रही है. सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करनेवाले विकसित देश उभरती अर्थव्यवस्थाओं को आवश्यक वित्तीय मदद करने में आनाकानी कर रहे हैं, जिसकी वजह से स्वच्छ ऊर्जा के विस्तार की गति बहुत धीमी है.

यह संतोष की बात है कि अमेरिका और यूरोप में नये सिरे से पर्यावरण की चिंता को राजनीतिक एजेंडे में लाने के लिए प्रयास हो रहे हैं. चीन और भारत ने भी प्रदूषण रोकने और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर ध्यान देना शुरू किया है, परंतु इन देशों के सामने अपनी आबादी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आर्थिक और औद्योगिक विकास की गति को बनाये रखने की बड़ी चुनौती भी है.

हमारे देश में ऊर्जा के लिए स्वच्छ स्रोतों को बढ़ावा दिया जा रहा है, पर कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि ही हो रही है. वायु और जल प्रदूषण की भयावह समस्या भी है. ऐसे में देश और दुनिया के पैमाने पर सहभागिता के साथ धरती और मानव जाति को बचाने के त्वरित प्रयास आवश्यक हैं.

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