धन के आगे घुटने टेकती राजनीति!
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. यह पंक्ति कहते-सुनते हम अघाते नहीं. आकार और विचार में यह ठीक भी है, पर कड़वी हकीकत यह भी है कि वैश्विक स्तर पर हम भ्रष्टतम देशों में से एक हैं. शासन के सबसे निचले पायदान से लेकर सत्ता के शिखर तक नीतियां व नीयत धनलोलुपता के हाथों […]
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. यह पंक्ति कहते-सुनते हम अघाते नहीं. आकार और विचार में यह ठीक भी है, पर कड़वी हकीकत यह भी है कि वैश्विक स्तर पर हम भ्रष्टतम देशों में से एक हैं. शासन के सबसे निचले पायदान से लेकर सत्ता के शिखर तक नीतियां व नीयत धनलोलुपता के हाथों गिरवी हैं. ऐसे में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री व जनता दल (सेकुलर) के नेता एचडी कुमारस्वामी द्वारा विधान परिषद् के चुनाव में अपने विधायकों के समर्थन के एवज में एक उम्मीदवार से 40 करोड़ रुपये मांगने की खबर बहुत चौंकाती नहीं है.
पर, इस खबर में दो बातें ऐसी हैं, जो राजनीतिक भ्रष्टाचार के चरित्र को स्पष्ट करती हैं. पहली बात तो यह कि इस कथित टेप में कुमारस्वामी किसी भवन या दुकान की कीमत की तरह अपने विधायकों का मोलभाव करते सुनाई पड़ रहे हैं और अंतत: सौदा 20 करोड़ में तय करते हैं. दूसरी बात यह कि खबर बाहर आने पर वे शर्मिदा होने के बजाय कहते हैं कि आज राजनीति के लिए धन बहुत महत्वपूर्ण है. इससे पहले, 2013 में हरियाणा से कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य चौधरी वीरेंद्र सिंह ने यह कह कर सनसनी फैला दी थी कि राज्यसभा का टिकट पाने के लिए 80 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तराखंड में बहुजन समाज पार्टी के दो विधायकों ने पार्टी नेतृत्व पर आरोप लगाया था कि पार्टी के टिकट पैसे लेकर बांटे जा रहे हैं.
इस तरह की बातें अक्सर सुनाई देती हैं. बड़े दुर्भाग्य की बात है कि कालाधन से लेकर कमीशनखोरी और घूस से लेकर घोटाले के दलदल में फंसी राजनीति न तो राजनेताओं को विचलित कर रही है और न ही जनता के मुखर वर्ग को इसकी खास चिंता है. भ्रष्टाचार राष्ट्रीय जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, भ्रष्टाचार के मामले में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 94वां था. इसी संस्था के 2005 के अध्ययन में बताया गया था कि 62 फीसदी भारतीयों को सरकारी दफ्तरों में घूस देने का सीधा अनुभव है. आश्चर्य नहीं है कि भ्रष्ट और अपराधी भी धन के बल पर जीत कर संसद व विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं. अब ऐसे लोगों से जन कल्याण व लोक सेवा की भावना की उम्मीद तो बेमानी ही होगी!