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कोई तो मुझे इस गैंग से बचाये!

पंकज कुमार पाठक प्रभात खबर.कॉम पिछले लगभग दो सालों से मैं एक गैंग से बहुत परेशान हूं. ये लोग कई बार मुझ पर हमला कर चुके हैं. लेकिन अपनी बाइकिंग की काबिलीयत की वजह से मैं हर बार बच निकलने में कामयाब रहा हूं. लेकिन हर दिन की शुरु आत डर के साथ होती है […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 8, 2014 4:35 AM

पंकज कुमार पाठक

प्रभात खबर.कॉम

पिछले लगभग दो सालों से मैं एक गैंग से बहुत परेशान हूं. ये लोग कई बार मुझ पर हमला कर चुके हैं. लेकिन अपनी बाइकिंग की काबिलीयत की वजह से मैं हर बार बच निकलने में कामयाब रहा हूं. लेकिन हर दिन की शुरु आत डर के साथ होती है कि किसी दिन अगर मेरी बाइक और किस्मत ने साथ नहीं दिया, तो क्या होगा? इस गैंग से बचने के लिए कई बार मैंने अपना रास्ता बदला, लेकिन हर गली में उसके गुर्गे भरे हैं. इनका मुखिया मेरे घर वाली गली के पास ही खड़ा रहता है.

आप सोच रहे होंगे कि मैं इसकी शिकायत थाने में क्यों नहीं करता. लेकिन सच तो यह है कि थानेदार भी मुझे इस गैंग से नहीं बचा सकते. क्योंकि थाने में शिकायत इनसानों की की जा सकती है, कुत्तों की नहीं. जैसे ही रात के 10 बजे ऑफिस से घर के लिए निकलता हूं, पूरे रास्ते यही सोचता रहता हूं कि आज उनसे मेरे सामना ना हो. लेकिन हर दिन एक काला कुत्ता ठीक मेरे घर से पहले अपने पूरे गैंग के साथ मेरा इंतजार करता मिलता है. ऐसे घूर के देखता है मानो जन्मों की दुश्मनी हो.

फिर काटने दौड़ पड़ता है. उसके नुकीले दात देख कर मेरी बाइक की स्पीड खुद ब खुद बढ़ जाती है. मेरा डर पिछले दिनों और बढ़ गया है जब मैंने अपने ही अखबार में एक खबर पढ़ी. खबर थी कि अस्पतालों में कुत्ता काटने की दवा (एंटी रैबीज वैक्सीन) मौजूद नहीं है. उसी दिन इंटरनेट पर एक अन्य खबर ने मुङो और डरा दिया. खबर यह थी कि दो साल की बच्ची को कुत्ता तब तक काटता रहा, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गयी. उस दिन मुङो काले कुत्ते की जगह यमराज खड़े नजर आ रहे थे. मैं किस तरह घर पहुंचा, बयां भी नहीं कर सकता. खैर, इस डर के बीच कुत्तों के बारे में मेरा ज्ञान काफी बढ़ गया है. इन कुत्तों का मैनेजमेंट देश के बड़े-बड़े प्रबंधन संस्थानों में पढ़ाने लायक है.

कभी रात में निकलिए, तो गौर कीजिएगा. हर गली पर नजर रखने के लिए कुत्तों की अलग-अलग ड्यूटी होती है. अगर गली चौड़ी हो तो तीन कुत्ते, छोटी हो तो दो या फिर हट्टा-कट्ठा कुत्ता अकेला काफी होता है. वे इन गलियों पर ऐसे नजर रखते है जैसे इलाके के दादा. हर आने-जाने वाले पर भौंक कर अपनी धौंस जमाते हैं. अगर जरा भी ऊंच-नीच हुई, तो उस कुत्ते की मदद के लिए पूरा गैंग दौड़ कर वहां पहुंच जाता है. जब भी मैं इनके गैंग से घिरा होता हूं, बस रजनीकांत जी को याद करता हूं. उनकी फिल्म का एक डायलॉग याद आने लगता है- मुन्ना झुंड में तो कुत्ते शिकार करते हैं, शेर अकेला निकलता है. लेकिन जब इनसे बच कर घर पहुंचता हूं, तो मन ही मन नगर निगम को भगवान मान विनती करता हूं- ‘‘अगर आप चाहते है कि हम जैसे पत्रकार रात को अपना काम खत्म करने के बाद सही-सलामत घर पहुंचें तो इन आवारा कुत्तों का कोई उपाय कीजिए.’’ आखिर रजनी सर के डायलॉग के सहारे कब तक बचता रहूंगा?

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