अर्थशास्त्री
विश्व बैंक और मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है कि वे विश्व अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़ें. परंतु, वित्त मंत्री को जानना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव का आज तक परिणाम गरीबों के लिए सुखद नहीं रहा है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली शीघ्र ही अपना बजट पेश करनेवाले हैं. बजट में आगामी वर्ष की टैक्स की दरों की घोषणा की जाती है. हमारी अर्थव्यवस्था के विश्वअर्थव्यवस्था से जुड़ाव पर इन दरों का गहरा प्रभाव पड़ता है. मसलन, आयात कर न्यून होने से विदेशी माल का आयात बढ़ता है. इसके विपरीत आयात कर बढ़ाने से आयात कम होते हैं और घरेलू उद्योगों को खुला मैदान मिलता है. ध्यान रहे कि अर्थव्यवस्था का अंतिम लक्ष्य जनता है. अत: देखना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव का आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ता है.
अधिकतर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हमें विश्व अर्थव्यवस्था से और अधिक गहराई से जुड़ना होगा. अपनी कंपनियों को दूसरे देशों में प्रवेश करने को प्रोत्साहन देना होगा. एफडीआइ को रिटेल जैसे चुनिंदा क्षेत्रों में छोड़ कर सभी क्षेत्रों में आकर्षित करना होगा. इससे उत्पादन व रोजगार बढ़ेगा. इस मॉडल को विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के साये में कई देशों ने लागू किया है, लेकिन परिणाम सुखद नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक, ‘श्रमिकों की बढ़ती संख्या की तुलना में रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं. वैश्विक बेरोजगारी की स्थिति आनेवाले समय में बिगड़ेगी. वैश्विक युवा बेरोजगारी दर 13.1 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गयी है.’ इस संस्था के अनुसार भारत जैसे दक्षिण एशिया के देशों में बेरोजगारी की स्थिति इससे ज्यादा कठिन है. यहां मुख्यतया असंगठित रोजगार बढ़ रहे हैं. अपने देश में लोग येन-केन-प्रकारेण जीविका चला लेते हैं. जैसे किसी की नौकरी छूट जाये, तो वह सब्जी बेच कर गुजारा कर लेता है. वास्तव में वह बेरोजगार है, लेकिन आंकड़ों में सरोजगार गिना जाता है.
बेरोजगारी की यह स्थिति इस विकास मॉडल का तार्किक परिणाम है. इसमें ऑटोमेटिक मशीनों के दौर में उत्पादन के लिए मुट्ठीभर उच्च तकनीकों को जाननेवालों की जरूरत पड़ती है. इन्हें भारी वेतन दिये जाते हैं, जैसे 1-2 लाख रुपये प्रति माह. इन चुनिंदा व्हाइट कॉलर कर्मचारियों द्वारा एक के स्थान पर तीन घरेलू नौकर रखे जाते हैं. इस प्रकार संगठित रोजगार संकुचित हो रहा है, जबकि असंगठित रोजगार बढ़ रहा है.
यह कहना आसान है कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने के साथ-साथ छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जायेगा. यह उसी प्रकार है जैसे पहलवान को आमंत्रण देने के साथ-साथ गांव के कुपोषित बालक को प्रोत्साहन देना.
पहलवान को आमंत्रित करेंगे, तो बालक बाहर हो ही जायेगा. लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने के लाभ भी हैं. भारत तमाम सेवाओं को उपलब्ध कराने का वैश्विक केंद्र बनता जा रहा है. जैसे डिजाइन, कॉल सेंटर, ट्रांसलेशन, रिसर्च, क्लिनिकल ट्रायल इत्यादि में. निर्यात उद्योगों में रोजगार उत्पन्न होते हैं. लेकिन अंतिम सत्य यह है कि श्रम बाजार में प्रवेश करनेवाले 100 में से 1 को ही संगठित क्षेत्र में रोजगार मिला है. मेरी समझ से विश्व अर्थव्यवस्था के दायरे में इस समस्या का हल उपलब्ध नहीं है. आर्थिक सुधारों के पहले संगठित क्षेत्रों में रोजगार ज्यादा उत्पन्न हो रहे थे. सुधारों के बाद वे कम हुए हैं.
मेरा मकसद अपने को विश्वअर्थव्यवस्था से अलग करने का नहीं है. बल्कि, ग्लोबलाइजेशन के अलग-अलग अंगों के लाभ-हानि का आकलन करके निर्णय लेना होगा कि उन्हें अपनाया जाये या छोड़ा जाये. जैसे हाइटेक उत्पादों के आयात को आसान बना देना चाहिए, लेकिन कपड़े के आयात पर प्रतिबंधित श्रेयस्कर हो सकता है. भले ही विदेशी कपड़ा एक रुपये मीटर सस्ता क्यों न हो, इससे देश के लाखों लोगों का रोजगार प्रभावित होता है, अत: इस पर प्रतिबंध हितकर होगा. तुलना में यदि विदेशी कंप्यूटर आधे दाम पर मिल रहा है और इसके आयात से 10-20 हजार श्रमिक ही प्रभावित हो रहे हें, तो इसे आने देना चाहिए.
यही बात विदेशी निवेश पर भी लागू होती है. विदेशी निवेश के हर प्रस्ताव का श्रम तथा तकनीकी ऑडिट कराना चाहिए. इसमें परोक्ष रूप से रोजगार के हनन का आकलन भी करना चाहिए. जैसे खुदरा बिक्री से सीधे एक लाख रोजगार उत्पन्न हुए, परंतु किराना दुकानों के बंद होने से परोक्ष रूप से 10 लाख रोजगार का हनन हुआ. इन दोनों प्रभावों का समग्र रूप से आकलन करना चाहिए. इसके बाद प्रस्तावों को स्वीकार करेंगे, तो हम विश्वअर्थव्यवस्था से भी जुड़ेंगे और अपने नागरिकों को उच्च कोटि के रोजगार भी उपलब्घ करा सकेंगे. नयी सरकार को डब्ल्यूटीओ संधि से भी बाहर आने का साहस रखना चाहिए.
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है कि वे विश्व अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़ें. इन संस्थाओं के आका विकसित देश हैं. इनके दबाव में न आकर वित्त मंत्री को जानना चाहिए कि विश्वअर्थव्यवस्था से जुड़ाव का आज तक परिणाम गरीबों के लिए सुखद नहीं रहा है.