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भ्रष्टाचार दशकों से चुनाव का बड़ा मुद्दा

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार surendarkishore@gmail.com कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहस करने के लिए एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी है. अब तो यह प्रधानमंत्री पर है कि वे राहुल की चुनौती स्वीकार करते हैं या नहीं. या फिर राहुल किस तरह की बहस और किस मंच पर […]

सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
surendarkishore@gmail.com
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहस करने के लिए एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी है. अब तो यह प्रधानमंत्री पर है कि वे राहुल की चुनौती स्वीकार करते हैं या नहीं. या फिर राहुल किस तरह की बहस और किस मंच पर चाहते हैं? परोक्ष या प्रत्यक्ष? बहस तो वैसे भी देशभर में हो ही रही है. उच्चत्तम स्तर पर भी और देश के तृणमूल स्तर पर भी. मीडिया और अदालतों में भी यदा-कदा बहस चलती रहती है. पर सबसे ऊपर तो जनता की अदालत है. मतदाता अन्य मुद्दों के साथ-साथ भ्रष्टाचार पर भी चर्चा कर रहे है.
स्मार्टफोन के विस्तार के कारण लगभग हर तरह की सूचनाएं अधिकतर गांवों तक उपलब्ध हैं. ‘सूचना में ताकत होती है.’ चैपालों से लेकर चाय खानों-काफी हाउसों तक विभिन्न मुद्दांे की गंभीर चर्चा है. बल्कि यूं कहिये तो 1967 के आम चुनाव से ही किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार की समस्या पर देश चर्चा करता रहा है.
देश के विभिन्न चुनावों में भ्रष्टाचार के मुद्दे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. कुछ दफा तो भ्रष्टाचार चुनाव का निर्णायक मुद्दा भी बना. इस बार भी काफी हद तक बन रहा है और चुनाव परिणाम पर उसका भारी असर दिख सकता है. आजादी के बाद के वर्षों में ही सरकारों में भ्रष्टाचार के लक्षण दिखने लगे थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि कालाबाजारियों को नजदीक के लैंप पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए. वे जानते थे कि भ्रष्टाचार रहेगा, तो गरीबी नहीं जायेगी.
सन 1963 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी संजीवैया को कहना पड़ा था कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे हैं.’ गुस्से में संजीवैया ने यह भी कहा था कि ‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है.’
साल 1965-66 आते-आते बिहार सहित कुछ राज्यों में स्थानीय सरकारों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग उद्वेलित होने लगे. साल 1967 में बिहार में तो सरकारी भ्रष्टाचार ही चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गया था. सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखने के कारण पटना के एक संपादक को जेल जाना पड़ा था. मतदाताओं ने बिहार के सरकारी दल को चुनाव में हरा दिया और गैर-कांग्रेसी सरकार बन गयी. पश्चिम बंगाल सहित आठ अन्य राज्यों में भी कांग्रेस सत्ता से च्युत हो गयी थी.
साल 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया. बाइस साल की आजादी के बाद भी गरीबी नहीं हट रही थी, तो उसका एक बड़ा कारण सरकारी भ्रष्टाचार भी बताया गया. कांग्रेस के भीतर के ‘सिंडिकेट तत्वों’ के खिलाफ इंदिरा गांधी का अभियान जारी था. साल 1969 में कांग्रेस में विभाजन हो गया. बोलचाल की भाषा में एक को सिंडिकेट कांग्रेस और दूसरे को नाम इंडिकेट कांग्रेस कहा गया.
इंडिकेट कांग्रेस यानी इंदिरा कांग्रेस ने जनता को बताया कि सिंडिकेट कांग्रेस के नेता पूंजीपतियों के करीबी हैं. वे भ्रष्टाचार के विरोधी नहीं हैं. इंदिरा कांग्रेस की राय थी कि इन पर कार्रवाई के बिना गरीबी हटाने में मदद नहीं मिलेगी. नतीजतन इंदिरा सरकार ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स को समाप्त कर दिया. उनके विशेषाधिकार भी खत्म हो गये. इससे इंदिरा की छवि निखरी और मतदाताओं ने भारी बहुमत से उन्हें लोकसभा का चुनाव जिता दिया.
साल 1974 आते-आते जब सरकारी भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग सकी, तो बिहार के छात्रों-युवकों ने भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और कुशिक्षा के खिलाफ 18 मार्च, 1974 को आंदोलन शुरू कर दिया. बाद में जेपी ने उस आंदोलन को नेतृत्व दिया. उससे वह देशव्यापी आंदोलन में बदल गया. साल 1977 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गयी. फिर जनता पार्टी की सरकार केंद्र में बनी, पर जनता ने 1980 में दोबारा कांग्रेस को सत्ता सौंप दी.
वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, तो उनकी छवि ‘मिस्टर क्लीन’ की थी. पर 1985 में राजीव गांधी ने ओडिशा के कालाहांडी में यह कहकर देश को चौंका दिया कि सरकार जो 100 पैसे भेजती है, उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं.
बाकी बिचाैलिये खा जाते हैं. वर्ष 1987 आते-आते राजीव सरकार पर बोफर्स सौदे सहित भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे. वर्ष 1989 का लोकसभा चुनाव तो मुख्य रूप से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही लड़ा गया. कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी. वीपी सिंह की सरकार तो मंडल-मंदिर विवाद की भेंट चढ़ गयी. फिर 1991 में कांग्रेस के नरसिंह राव के नेतृत्व में केंद्र में बनी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे.
साल 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. साल 1998 तक सरकारें घिसटती-सरकती हुई चलीं. इसी साल बनी अटल सरकार 2004 तक चली, पर वह भी न तो भ्रष्टाचार के मोर्चे पर कारगर कार्रवाई कर सकी और न ही अपना गठबंधन बनाये रख सकी. नतीजतन 2004 में कांग्रेस को फिर मौका मिल गया और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में दो ही मुद्दे थे- मनमोहन सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप और कांग्रेस की अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति. चुनाव बाद एके एंटोनी कमेटी ने भी तुष्टिकरण को कांग्रेस की हार का एक कारण बताया. यानी नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने में मोदी का जितना सकारात्मक योगदान नहीं था, उससे अधिक मनमोहन सरकार का नकारात्मक योगदान रहा.
अब मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल के कामकाज जनता की कसौटी पर हैं. उन पर जनता को निर्णय लेना है. राजग का अधिकतर विपक्षी दलों पर मुख्य हमला विपक्षी नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को लेकर है. दूसरी ओर विपक्ष भी बदले की भावना से की गयी कार्रवाई का आरोप मोदी सरकार पर लगा रहा है. राहुल गांधी राफेल सौदे को लेकर मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं. अब देखना है कि मतदाताओं की नजर में किस पक्ष पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप जनता के लिए ‘सहनीय’ हैं और किसके भ्रष्टाचार ‘असहनीय’?
यह जनता है, सब जानती है! साल 1967 के बाद से हर अगले चुनाव में अधिकतर मतदाताओं ने उन्हें ही चुना, जिन पर भ्रष्टाचार के अपेक्षाकृत हल्के आरोप थे. हालांकि, इस मामले में कुछ अपवाद देखे गये, पर सामान्यतया मतदाताओं ने अधिक भ्रष्टचार को नकारा और कम भ्रष्टाचार को मजबूरन स्वीकारा.

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