रेल हमारे लिए सिर्फ सवारी नहीं
।। सत्य प्रकाश चौधरी ।। प्रभात खबर, रांची जैसे अपने कुत्ते को कुत्ता कहने पर बड़े लोग बुरा मान जाते हैं, वैसे ही मुझ जैसे छोटे लोग बुरा तब मानते हैं जब कोई रेल को बाकी सवारियों की तरह ही एक सवारी बताता है. इन बेवकूफों को समझाओ कि रेल सवारी नहीं, जादू की पुड़िया […]
।। सत्य प्रकाश चौधरी ।।
प्रभात खबर, रांची
जैसे अपने कुत्ते को कुत्ता कहने पर बड़े लोग बुरा मान जाते हैं, वैसे ही मुझ जैसे छोटे लोग बुरा तब मानते हैं जब कोई रेल को बाकी सवारियों की तरह ही एक सवारी बताता है. इन बेवकूफों को समझाओ कि रेल सवारी नहीं, जादू की पुड़िया है. एक तिलस्म है, लय है, गति है, ताल है. रेल से न जाने कितने हजार किलोमीटर सफर किया होगा, पर आज भी सामने से कोई रेलगाड़ी गुजरती है तो उसका नाम जानने की जिज्ञासा उछाल मारने लगती है. अगर आप दूसरी ट्रेन में हैं, तो रफ्तार की वजह से उसका नाम पढ़ पाना मुश्किल होता है.
ऐसे में पुराने चावल जैसा कोई सहयात्री तुरंत अपनी घड़ी पर निगाह डालता है और फौरन यह सूचना प्रसारित करता है कि फलां एक्सप्रेस गुजरी है. जब भी किसी मालगाड़ी को देखता हूं, फिर से बच्च बन जाता हूं. बाप रे, इत्ती लंबी! एक.. दस.. तीस.. गिनना छोड़ो यार चालीस से ज्यादा ही डिब्बे होंगे. बस का सफर उबाता है, हवाई जहाज डराता है, पर रेल चलता हुआ अपना घर लगता है.
आप अकेले सफर कर रहे हों, तो भी कोई बात नहीं. सामान वगैरह एडजस्ट करने के बाद ‘आप कहां जा रहे हैं?’ से बातों का सिलसिला शुरू होता है और कुछ ही देर में आपके नये दोस्त, नये परिचित बन जाते हैं. हो सकता है, उन सहयात्रियों के चेहरे आप भूल जायें, पर उनके साथ गुजरा वक्त याद रहता है. आजकल जिसे देखिए रेलगाड़ी में रफ्तार चाहता है, जो सारे स्टेशन छोड़ती चले. लेकिन, हर स्टेशन की अपनी तासीर होती है, अपनी खूबी और खासियत होती है. कहीं अपने जूते बचाने होते हैं, तो कहीं अपनी जेब और सामान. कहीं उतर कर चाय पीनी होती है, तो कहीं से कुछ खाने के लिए लेना होता है. जो चाहते हैं कि ट्रेन सारे स्टेशन छोड़ दे, वे इसका मजा क्या जानें. मेरा दावा है, इन बदनसीबों ने मुरी स्टेशन की प्याजी, टुंडला की आलू टिक्की, उन्नाव के समोसे, ऊंचाहार की पकौड़ियां, अलवर का मिल्क केक नहीं चखा होगा. इन्हें बदजायका ‘रेल आहार’ और बेस्वाद ‘डिप टी’ मुबारक हो, अपने को तो रामप्यारी चाय और झाल-मूढ़ी चाहिए.
तो रेल मंत्री जी, जिन्हें रफ्तार चाहिए, उनके लिए आप बुलेट ट्रेन चलाइए या रॉकेट ट्रेन, पर कम से कम मेरे लिए थोड़ा रुक-रुक कर चलनेवाली रेलगाड़ी चलने दीजिएगा. हम तो अपने कस्बे के रेलवे स्टेशन के चक्कर तब भी लगाया करते थे, जब हमें यात्रा नहीं करनी होती थी. क्योंकि हिंदी की मशहूर साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ हमारे कस्बे में सिर्फ रेलवे स्टेशन के व्हीलर बुक स्टाल पर मिलती थी. रेल हमारे लिए रोमांस है, नास्टाल्जिया है. घर से साइकिल लेकर निकले और पैसेंजर ट्रेन की खिड़की में पैडल फंसा कर उसे लटका दिया. स्टेशन पर पहुंच कर फिर साइकिल उतारी और पहुंच गये मौसी के घर. छात्र जीवन में बिना टिकट यात्रा करने के रोमांच के क्या कहने थे- आना फ्री, जाना फ्री, पकड़े गये तो खाना फ्री (जेल में).