रेल मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने भारतीय रेल को आधुनिक बनाने और इसे बुलेट युग में ले जाने का सपना दिखाने सहित कई नयी घोषणाएं की हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन घोषणाओं पर रेल मंत्री की पीठ थपथपायी है और कहा है कि ‘अब होगी 21वीं सदी की भारतीय रेल’. इसमें विजन, रफ्तार और सोच भी है, लेकिन जितने लंबे-चौड़े वायदे किये गये हैं, उन्हें अगले पांच वर्षो में जमीन पर उतारना आसान नहीं होगा.
बिना संसाधनों के न तो रेल के आधारभूत ढांचे का विकास हो सकता है और न ही नयी परियोजनाओं को आकार दिया जा सकता है. संसाधनों के लिए एफडीआइ और पीपीपी का रास्ता रेलवे में इतना सहज नहीं है. पहले के उदाहरणों की विफलताएं हमारे सामने हैं.
रेलवे की 2014-15 की वार्षिक योजना 65,445 करोड़ रुपये की है. इसमें आंतरिक संसाधन से 15,350 करोड़ रुपये और बजटरी समर्थन 30,100 करोड़ रुपये है. यानी आधुनिकीकरण के लिए खास रकम नहीं है. लेकिन, दावा तो संरक्षा से लेकर आइटी पहल और आधुनिकीकरण तक का किया गया है. भारतीय रेल को आधुनिकीकरण के लिए अगले पांच साल में 5.6 लाख करोड़ रुपये की दरकार है. अब तक इस मामले में रेलवे कागजों में ही उलझा है. 2011 में रेलवे के आधुनिकीकरण और संरक्षा को लेकर तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने सैम पित्रोदा और डॉ अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में दो समितियां बनायी थीं, जिनकी रिपोर्ट रेलवे की जमीनी हकीकत बताती है.
सैम पित्रोदा समिति ने 19 हजार किमी रेल पथ नवीनीकरण के साथ 11,250 पुलों की मरम्मत और उन्नयन के काम को करने को सबसे अधिक प्राथमिकता देने की सिफारिश की थी. इसके बिना तेज रफ्तार के साथ यात्री और माल यातायात की ढुलाई नहीं हो सकेगी. इसी तरह रेलवे सिग्नलिंग प्रणाली को आधुनिक बनाने के साथ अत्याधुनिक रेल इंजनों को रेलवे की सेवा में लगाने की सिफारिश भी की गयी थी. इसमें रेलवे बोर्ड के मौजूदा ढांचे में बदलाव करते हुए प्रशासन को और सक्षम बनाने की वकालत की गयी थी. ये सारी बातें रेल मंत्री की घोषणाओं में शामिल हैं, लेकिन आधुनिकीकरण पर केवल बातें हैं. रेलवे के प्रथम और दूसरी श्रेणी के मार्गो पर ऑटोमेटिक ब्लॉक सिग्नलिंग के साथ ऑन बोर्ड ट्रेन प्रोटेक्शन सिस्टम और जीएसएम आधारित मोबाइल ट्रेन कंट्रोल सिस्टम की व्यवस्था के लिए कोई ठोस प्रावधान नहीं है.
आज भारतीय रेल को उच्च यातायात के लिए 9,000 से 12,000 हॉर्सपावर के बिजली इंजन और 5,500 हॉर्सपावर के डीजल इंजन चाहिए. इसी से गति 160 से 200 किमी की जा सकेगी. और इससे ही शक्तिमान गाड़ियां चल सकेंगी. सरकार ने पित्रोदा समिति की सिफारिशों से सैद्धांतिक सहमति जतायी और इसके क्रियान्वयन पर बल भी दिया गया, लेकिन साधन कहां से आयेगा, इस सवाल पर सबने मौन साधा हुआ है. न तो इसे क्रियान्वित करने के लिए भारत सरकार 2.50 लाख करोड़ रुपये की बजटरी सहायता देने की हालत में है और न ही रेलवे 2.01 लाख करोड़ रुपये आंतरिक सृजन से हासिल करने की हालत में. इसी नाते 12वीं योजना के दो साल बीत जाने के बाद भी जमीन पर कुछ खास नहीं उतर सका और आगे भी इसकी कम ही उम्मीद है, क्योंकि ये सारे काम पैसे से ही होने हैं.
दूसरी ओर तत्काल व्यवस्था के तहत संरक्षा मद में एक लाख करोड़ रुपये का प्रबंध करने की जरूरत है. वैसे तो भारतीय रेल ने सुरक्षा और संरक्षा की दिशा में कुछ कदम उठाये हैं. इसमें टक्कर-रोधी उपकरणों की स्थापना, ट्रेन प्रोटेक्शन वार्निग सिस्टम, ट्रेन मैनेजमेंट सिस्टम, सिग्नलिंग सिस्टम का आधुनिकीकरण, संचार प्रणाली में सुधार प्रमुख हैं. लेकिन ये छोटे-छोटे खंडों तक सीमित हैं, जबकि जरूरत पूरी प्रणाली की ओवरहालिंग की है. आज भी 14 हजार से अधिक मानव रहित समपार या लेबल क्रासिंग सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं.
अगर इनको पांच साल में खत्म करना है, तो इस पर 50,000 करोड़ का भारी-भरकम खर्च आयेगा. वहीं रेलवे में दो लाख 85 हजार कर्मचारियों के पद खाली पड़े हैं, जिसमें से डेढ़ लाख से अधिक पद तो संरक्षा कोटि के हैं. रेल यात्रियों की सुरक्षा की चुनौती भी लगातार बढ़ती जा रही है. चलती रेलों में चोरी और डकैतियां आम बात हो गयी है और ज्यादातर ट्रेनें बिना किसी पहरेदार के चलती हैं. जिन रेलगाड़ियों में पहरेदार हैं, उनके पास कोई हथियार नहीं है. पिछले पांच वर्षो में यात्रियों के खिलाफ आपराधिक घटनाओं में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.
रेल मंत्री ने स्वीकार किया है कि आज केवल चालू परियोजाओं के लिए रेलवे को पांच लाख करोड़ रुपये की जरूरत है. इसमें से रेल लाइन से संबंधित 347 लंबित रेल परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 1.82 लाख करोड़ रुपये की भारी राशि चाहिए. संसाधनों के इंतजाम के बिना हर रेल बजट में नयी परियोजनाएं शामिल करने का फैशन हो गया है. 2013-14 के रेल बजट में ही 25,000 करोड़ से अधिक लागत की 23 नयी परियोजनाएं शामिल कर ली गयी थीं. और तो और मल्लिकाजरुन खड़गे ने अंतरिम रेल बजट में 71 नयी रेलगाड़ियों की घोषणा कर दी. लेकिन संसाधनों की जमीनी हकीकत यह है कि रेलवे 12वीं पंचवर्षीय योजना में केवल 1,392 किमी रेल लाइन बनाने की हालत में है. फिर भी रेल बजट में नयी प्राथमिकताएं तय करने की बात अच्छा कदम है.
आज रेलवे कई तरह के तनावों से गुजर रही है, जिसमें से बढ़ता संचालन व्यय और भी बेलगाम होता जा रहा है. 2013-14 में कुल कमाई 1.30 लाख करोड़ थी और संचालन व्यय 1.30 लाख करोड़ रुपये. सकल प्राप्तियों से ही ईंधन, वेतन, पेंशन और तमाम दूसरे काम होते हैं. वहीं इस समय 40 फीसदी रेलवे नेटवर्क दयनीय दशा की हालत में दबाव में है. इस पर लगभग 80 फीसदी यातायात चल रहा है. यह हाइ डेंसिटी नेटवर्क (एचडीएन) अति संतृप्त हो चुका है, लिहाजा अनुरक्षण के लिए समय देने, बेहतर उत्पादकता एवं संरक्षा के लिए इन्हें अपग्रेड किये जाने और इनकी क्षमता का विस्तार किये जाने की अत्यंत आवश्यकता है.
हर रेल मंत्री रेल पथ के दबाव की दशा देखे बिना ही नयी रेलगाड़ियों की घोषणा कर देता है. न इसमें यूपीए अपवाद रहा है न ही एनडीए. जहां यात्री गाड़ियां 2001-02 में 8,897 थीं, वहीं अब बढ़ कर 12,335 हो गयी हैं. इसी अनुपात में यात्री सेवाओं पर रेलवे का घाटा भी बढ़ रहा है. 2001-02 में यात्री सेवाओं पर घाटा 4,955 करोड़ था, जो अब 26,000 से 30,000 करोड़ रुपये के बीच तक पहुंच गया है. यात्री गाड़ियां कुल गाड़ियों का 70 फीसदी के करीब हैं, पर राजस्व में उनका योगदान 28 फीसदी से भी कम है, जबकि 30 फीसदी माल गाड़ियां कुल राजस्व में 65 प्रतिशत का योगदान दे रही हैं. इस दशा को बदले बिना रेलवे की आमदनी और विकास परियोजनाओं के बीच संतुलन नहीं बिठाया जा सकता है. आज भारतीय रेल को रेलगाड़ियों की गति को बढ़ाने, यात्री और माल टर्मिनलों का आधुनिकीकरण करने, आधुनिक चल स्टॉक को सेवा में लगाने और ग्राहक केंद्रित सेवाएं उपलब्ध कराने की जरूरत है.