घरों में किताबों के लिए जगह

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com तीन कमरों का घर. एक कमरे में नीचे से ऊपर तक बड़ी-बड़ी अलमारियां. उनमें सालों पुरानी बेहतरीन किताबें. किताबें और पत्र-पत्रिकाएं अब भी निरंतर आ रही हैं. हालत यह है कि एक नयी किताब तब तक नहीं रखी जा सकती, जब तक कि दो पुरानी न निकाली जायें. हर किताब […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 24, 2019 6:38 AM

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

kshamasharma1@gmail.com

तीन कमरों का घर. एक कमरे में नीचे से ऊपर तक बड़ी-बड़ी अलमारियां. उनमें सालों पुरानी बेहतरीन किताबें. किताबें और पत्र-पत्रिकाएं अब भी निरंतर आ रही हैं. हालत यह है कि एक नयी किताब तब तक नहीं रखी जा सकती, जब तक कि दो पुरानी न निकाली जायें. हर किताब को देखकर लगता है कि अरे यह तो कभी भी काम आ सकती है. लेकिन अलमारियों की अपनी सीमा है.

मेरे घर के पास ही एक स्कूल है. उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्हें तो बस बच्चों के लिए लिखी गयीं कविताओं और नाटकों की किताबें ही चाहिए. कविताएं भी ऐसी जो राष्ट्रीय पर्वों, नेताओं और त्योहारों पर लिखी गयी हों, जो गायी भी जा सकें. फिर मैंने एक बड़े पुस्तकालय के अधिकारी से पूछा. वे कहने लगे कि आपको किताबों की जरूरत हो, तो हमारे यहां से ही ले जाइये, हमने खुद बहुत सी किताबें निकाली हैं.

उनकी बात सुनकर बहुत साल पुरानी एक घटना याद आ गयी. एक मशहूर पुस्तकालय ने एक बार कहा था कि वे बहुत सी किताबें हटाना चाहते हैं.

एक बार आकर देख लूं. वहां पहुंचकर जब उनसे किताबों की सूची मांगी, तो वे एक विशाल तहखाने में ले गये. वहां हजारों किताबें थीं, पुरानेपन की गंध से छींकें आने लगीं. उन्हें निकालकर देखना तो संभव ही नहीं था. इनमें से बहुत सी दुर्लभ किताबें रही होंगी. और बहुत सी किताबों का पहला संस्करण ही छपा होगा, जो फिर कभी न मिले. लेकिन हो भी क्या सकता था, किताबों के उस पहाड़ से किताब छांटना तो दूर, उनके पास भी नहीं जाया जा सकता था. दूर खड़े होके भी धूल से तबियत िबगड़ रही थी.

इन दिनों अगर किसी युवा से कहें कि कुछ किताबें चाहिए, तो उसका पहला जवाब तो यही होता है कि अरे टाइम ही कहां है. सवेरे निकलते हैं, रात गये लौटते हैं, फिर भी काम पूरे नहीं होते. किताबें कब पढ़ें? जिनके पास पढ़ने का थोड़ा-बहुत समय है, वे भी आॅनलाइन पढ़ना पसंद करते हैं. कई कहते हैं कि उन्हें जरूरत की कुछ किताबें घर में रखना पसंद है, पर उनकी साफ-सफाई-देखभाल की फुरसत नहीं है.

एक मित्र अपने गांव में पुस्तकालय चलाते हैं. उन्होंने बताया कि वह कुछ किताबें वहां के लिए खरीद कर लाये थे. एक बार रास्ते में पड़ोस में रहनेवाली दो लड़कियां मिल गयीं.

मित्र ने उनसे पूछा- किताबें चाहिए पढ़ने के लिए? लड़कियां दूर भागती बोलीं- नहीं अंकल. अभी तो इम्तिहान खत्म हुए हैं. कुछ दिन तो आराम से रहने दीजिये. लड़कियों की यह प्रतिक्रिया सुनकर मित्र हैरान नहीं हुए. बहुत से बच्चों के लिए किताबें पढ़ने का मतलब, पाठ्यक्रमों में तय हुई किताबें पढ़ना ही रह गया है. हां, हमारे मध्यवर्गीय घरों में किताबों के अलावा साज-सज्जा का बहुत सा सामान जरूर मिलता है.

जो लोग किताबों को बहुमूल्य मानते हैं, वे उन्हें किसी दोस्त की तरह समझते हैं, उनसे तरह-तरह की बातें सीखते हैं. उनकी भी मुश्किल है, घर छोटे हैं और किताबें ज्यादा. बहरहाल, कल 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस था.

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