निजीकरण पर ठोस बहस जरूरी

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in उदारीकरण के बाद देश में निजीकरण का माहौल तेजी से बढ़ा है. सरकारें निजीकरण को अर्थव्यवस्था के विकल्प के रूप देख रही हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी सामाजिक क्षेत्रों से लेकर रक्षा के क्षेत्र तक में विदेशी निवेश को मंजूरी दी गयी है. सार्वजनिक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 29, 2019 6:47 AM

डॉ अनुज लुगुन

सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

anujlugun@cub.ac.in

उदारीकरण के बाद देश में निजीकरण का माहौल तेजी से बढ़ा है. सरकारें निजीकरण को अर्थव्यवस्था के विकल्प के रूप देख रही हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी सामाजिक क्षेत्रों से लेकर रक्षा के क्षेत्र तक में विदेशी निवेश को मंजूरी दी गयी है.

सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की बात भी बार-बार उठ रही है. यह बात सच है कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ उपक्रमों का प्रदर्शन बेहतर नहीं है और वे विश्व बाजार की प्रतिस्पर्धा के समक्ष टिक नहीं रहे हैं. लेकिन, सरकार इन क्षेत्रों को मजबूत करने के बजाय पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप के तहत निजीकरण को ही बढ़ावा दे रही है. सवाल है कि क्या निजीकरण ही एकमात्र विकल्प है?

हाल ही में देश की बड़ी निजी एयरलाइंस कंपनी जेट एयरवेज के 8,500 करोड़ रुपये के भारी कर्ज में डूब कर अस्थायी तौर पर बंद हो जाने से यह सवाल फिर से प्रासंगिक हो गया है. इसके बंद होने के साथ ही उसके हजारों कर्मचारियों का भविष्य भी संकटग्रस्त हो गया है. इन कर्मचारियों के समर्थन में दूसरे सेक्टर के यूनियन भी खड़े हो रहे हैं.

बैंक यूनियन ने तो सरकार के सामने मांग रखी है कि इन कर्मचारियों के भविष्य को देखते हुए कंपनी के लिए लोन की व्यवस्था की जाए. सरकारी विमान कंपनी एयर इंडिया की यूनियन ‘एयर काॅरपोरेशन एम्प्लॉई यूनियन’ ने जेट के कर्मचारियों का समर्थन करते हुए कहा है कि निजीकरण एयरलाइन की समस्याओं का हल नहीं है. गौरतलब है कि इसके कर्मचारियों को समुचित वेतन भी नहीं मिला है.

इस घटना के कुछ महीने पहले ही सरकार ने भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के छह सरकारी हवाई अड्डों का निजीकरण कर दिया. विमानन उद्योग के क्षेत्र में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण किया गया. सरकार का कहना है कि इससे सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार होगी.

एयरपोर्ट अथॉरिटी एम्प्लॉइज यूनियन ने इसका विरोध किया था और इस पर घोटाला करने का आरोप भी लगाया था. इसी तरह विमानन उद्योग के क्षेत्र का एकमात्र सार्वजनिक एयरलाइंस एयर इंडिया के निजीकरण की भी बात जोर-शोर से उठती रहती है. ऐसा मानना है कि कर्ज के बोझ से दबी एयर इंडिया को निजीकरण के द्वारा ही उबारा जा सकता है. लेकिन क्या इस तरह के निजीकरण से कोई मूलभूत बदलाव होता है?

विमानन कंपनियों के वैश्विक संघ ‘इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन’ के मुख्य अर्थशास्त्री ब्रायन पीयर्स ने दुनियाभर के 90 हवाई अड्डों का अध्ययन कर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें हवाई अड्डों के निजीकरण के पहले और उसके बाद के प्रदर्शन का विश्लेषण किया गया है. उस रिपोर्ट के अनुसार निजी हवाई अड्डों के लाभ में तो अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, लेकिन इसके बावजूद इसके परिणाम उत्साहवर्धक नहीं है. निजीकरण के बाद सेवाएं महंगी हुई हैं और उनकी गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ है.

जेट एयरवेज के संकट को एयर इंडिया के साथ भी देखे जाने की जरूरत है. एयर इंडिया देश की एकमात्र सरकारी एयरलाइंस है. यह भी कर्ज के बोझ में दबी हुई है. इसकी हालत सुधारने के लिए सरकार इसके निजीकरण की दिशा में पहल करना चाहती है. एयर इंडिया के यूनियन ने इसका विरोध किया है.

अब जबकि जेट जैसी बड़ी देशी निजी कंपनी ध्वस्त होने के कगार पर आ खड़ी हुई है, ऐसे में एयर इंडिया के कर्मचारियों को इसके निजीकरण के विरुद्ध संबल मिल रहा है.

यह भी देखना चाहिए कि घाटे की मार सिर्फ एयर इंडिया या जेट ही नहीं झेल रही है, बल्कि और भी कई कंपनियां हैं. विमानन कंपनियों के लिए शोध करनेवाली संस्था ‘सेंटर फॉर एशिया पैसेफिक एविएशन’ यानी ‘कापा’ के रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वित्त वर्ष में भारतीय विमानन कंपनियों को करीब 1.9 अरब डॉलर के नुकसान होने का अनुमान था. यह स्थिति तब बनी है, जबकि पिछले वर्षों में देश में हवाई यात्रा करनेवालों की संख्या दोगुनी बढ़ी है.

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बारे में यह सरलीकृत विश्लेषण सुनने को मिलता है कि सरकारी कंपनियां अब बाजार में टिकने लायक नहीं रह गयी हैं. यह कहा जाता है कि उनके प्रबंधन की क्षमता खत्म हो गयी है और उसके कर्मचारी भ्रष्ट हो गये हैं. इसी के साथ ही उसके समाधान के रूप में निजीकरण का रास्ता सुझाया जाता है.

लेकिन, रोचक बात यह है कि जब कोई निजी कंपनी घाटे में होती है, या वह डूब जाती है, तो उसके सामने ये सवाल नहीं किये जाते हैं. इसके विपरीत सरकार उसकी सुरक्षा में खड़ी हो जाती है. इन सारी समस्याओं का समाधान सिर्फ निजीकरण नहीं है, बल्कि कंपनियों का समुचित प्रबंधन एवं संचालन भी जरूरी है.

जेट एयरवेज से कुछ साल पहले विमान उद्योग क्षेत्र की प्रतिष्ठित निजी कंपनी ‘किंग फिशर एयरलाइंस’ भी भारी घाटे और कर्ज में डूब कर हमेशा के लिए बंद हो गयी है. ऐसे ही पिछले सात वर्षों में छह बड़ी विमानन कंपनियां बंद हो चुकी हैं.

ऐसे में, सरकार को सार्वजनिक उपक्रमों को मजबूत बनाने की दिशा में सकारात्मक और नीतिगत पहल करनी चाहिए. हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि निजीकरण सिर्फ अपने लाभ तक सीमित रहता है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र देश में रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के सबसे बड़े आधार हैं.

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