क्योंकि जाति ही जिताऊ है

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com साल 2019 के आम चुनाव की विधिवत घोषणा होने के बाद भारत ने एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल की. अंतरिक्ष की निचली कक्षा में उपग्रह को मार गिराने की क्षमता का सफल प्रदर्शन करके हम विश्व का चौथा ऐसा देश बन गये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं राष्ट्र के नाम […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 1, 2019 7:34 AM
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
साल 2019 के आम चुनाव की विधिवत घोषणा होने के बाद भारत ने एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल की. अंतरिक्ष की निचली कक्षा में उपग्रह को मार गिराने की क्षमता का सफल प्रदर्शन करके हम विश्व का चौथा ऐसा देश बन गये.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं राष्ट्र के नाम विशेष संदेश प्रसारित करके यह बड़ी घोषणा की थी. इतनी महत्वपूर्ण उपलब्धि पानेवाले देश की सत्रहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा विज्ञान नहीं, जाति है. हर पार्टी और हर प्रत्याशी के पास हर चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना का आंकड़ा है. जाति के आधार पर प्रत्याशी तय किये गये हैं. जाति के आधार पर ही एक दल दूसरे दल के दांव-पेचों की काट कर रहा है. जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं. यह आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है.
भारतीय चुनावों में जाति की ‘अद्भुत भूमिका’ की चर्चा सात समंदर पार तक है. आखिर जाति कैसे चुनावों को प्रभावित करती है, इसका अध्ययन करने के लिए विदेशी पत्रकारों, विश्लेषकों और राजनीति के अध्येताओं के दल इन दिनों देशभर में घूम रहे हैं
.
कई देशों की सरकारें भी अपने राजनयिकों के माध्यम से यह ‘रोचक’ जानकारी एकत्र करा रही हैं. ये अध्येता विशेष रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव क्षेत्रों का दौरा करने के अलावा वरिष्ठ पत्रकारों और राजनीति के विशेषज्ञों से बातचीत करके इस गुत्थी को समझने का प्रयास कर रहे हैं.
इन दिनों स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जाति पक्ष-विपक्ष की चुनावी बहस का मुद्दा बनी हुई है. साल 2014 के चुनाव में मोदी ने अपने को पिछड़ी जाति का बताया था, तो विरोधी दल यह तथ्य खोज लाये थे कि मोदी थे तो अगड़ी जाति के, लेकिन 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल करा लिया था. इस बार विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि मोदी ‘नकली पिछड़े’ हैं.
इसके जवाब में मोदी ने रहस्योद्घाटन किया है कि वे पिछड़ी नहीं, बल्कि अति-पिछड़ी जाति के हैं. इससे पहले उन्होंने यह भी जोड़ा था कि ‘हालांकि ‘मैं जाति की राजनीति नहीं करता, लेकिन वे मेरा मुंह खुलवा रहे हैं. मालूम हो कि इस चुनाव में प्रधानमंत्री ही नहीं, राष्ट्रपति की जाति की भी चर्चा छेड़ी गयी थी, जिसकी कड़ी निंदा हुई.
यह भी कम विडंबनात्मक नहीं कि जाति की राजनीति करनेवाले सभी दल प्रकट रूप में इसकी निंदा करते हैं और एक-दूसरे पर जाति के आधार पर चुनाव लड़ने का आरोप लगाते हैं.
पर सच्चाई है कि लगभग हर राज्य में जाति आधारित पार्टियां हैं और सब जानते हैं कि किस दल का आधार वोट कौन सी जाति या जातियां हैं. किसी प्रमुख जातीय दल को हराने के लिए उसकी समर्थक जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाने की जातीय रणनीति बनायी जाती है. एक-दूसरे के प्रभावशाली जातीय नेताओं को तोड़ा जाता है. जाति ही उद्धारक है, जाति ही संहारक.
भारतीय समाज की जातीय संरचना और उससे उत्पन्न भेदभावपूर्ण व्यवस्था पर सबसे बड़ी चोट करनेवाले डॉ भीमराव आंबेडकर पर आज सभी दलों का आदर और प्यार उमड़ा हुआ है, तो इसलिए नहीं कि ये पार्टियां उनकी तरह ‘जाति का विनाश’ चाहती हैं.
आंबेडकर की प्रशस्ति चुनाव सभाओं में इसलिए गायी जा रही है, क्योंकि उनका नाम आज सबसे बड़े जातीय वोट-बैंक की कुंजी बन गया है. जिन आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन इस क्रूर सामाजिक संरचना के अध्ययन-मनन और उसका विनाश करने की कोशिशों में लगाया, आज उन्हीं को राजनीतिक दलों ने वोट के लिए जातीय राजनीति के फंदे में जकड़ रखा है.
माना जाता है कि जाति और नस्ल-भेद जैसी प्रथाएं दुनिया के सभी समाजों में मौजूद थीं, जो सभ्यता के विकास और आर्थिक तरक्की के साथ धीरे-धीरे समाप्त हो गयीं.
भारतीय समाज में हर तरह की तरक्की के बावजूद उसकी जकड़न आज तक बनी हुई है. पढ़े-लिखे और संपन्न परिवारों में भी सजातीय विवाह के आग्रह से लेकर तमाम जातीय भेदभाव बरतना देखकर बहुत ही आश्चर्य होता है. सबसे ज्यादा अफसोस तो इस बात पर होता है कि मतदाता अपना संसदीय प्रतिनिधि चुनते समय भी जातीय आग्रह रखते हैं.
दलित-शोषित और पिछड़ी जातियों को बराबरी पर लाने के उद्देश्य से जो संवैधानिक संरक्षण दिया गया, उससे बराबरी कितनी हासिल हुई, यह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन इसमें कोई विवाद नहीं कि इससे जातीय जकड़न मजबूत होती गयी.
आज अपेक्षाकृत संपन्न और अगड़ी जातियां भी आरक्षण की मांग कर रही हैं. वोट के लिए पार्टियां इन अगड़ी जातियों को गोलबंद किये हुए हैं. यही नहीं, आर्थिक आरक्षण की नयी व्यवस्था बनायी जा रही है, जबकि संविधान निर्माताओं की मंशा में आरक्षण का आधार शुद्ध रूप से जातीय था, आर्थिक नहीं.
समाज के सभी वर्गों में हर तरह की समानता लाये बिना जाति-प्रथा खत्म नहीं हो सकती. समानता लाने के लिए जो संवैधानिक उपाय किये गये, वे ही जातीय भेदभाव का बहाना बन गये.
दलितों-पिछड़ों के साथ अगड़ी जातियां अपना ‘श्रेष्ठ स्थान’ बांटने को तैयार होतीं या नहीं, राजनीतिक दलों ने उन्हें इतना सोचने का अवसर ही नहीं दिया. फौरन ही अगड़ों की राजनीति शुरू हो गयी. इस तरह से देखें, तो हमारे देश में ‘जाति का विनाश’ मात्र कागजों पर ही रह गया. विडंबना यह कि संसद पहुंचने का मार्ग ही जातीय वर्चस्व की लड़ाई बन गया.
Exit mobile version